Thursday 29 November 2012

सर्दी-जुकाम और फ्लू इन्हें करें ऐसे दूर


सर्दियों में सर्दी-जुकाम और फ्लू के मामले कहींज्यादा सामने आते हैं। इस सदर्भ में यह बात जान लेना जरूरी है कि सर्दी-जुकाम और फ्लू क्या हैं? सर्दी-जुकाम (कॉमन कोल्ड) ऐसे लक्षणों का समूह है, जो वाइरल इंफेक्शन के कारण सास नली के ऊपरी भाग को प्रभावित करते हैं।

नाक बहना व इसका बद रहना, खासी, छींकना, गले में खराश और आखों से आसू बहना आदि सर्दी -जुकाम के लक्षण हैं। सर्दी जुकाम के तेज प्रकोप के चलते कुछ लोगों को बुखार और बदन दर्द की शिकायत भी हो सकती है। थकान महसूस करना और भूख कम लगना भी सभव है।

दोनों के बीच फर्क

सर्दी-जुकाम और फ्लू के बीच फर्क यह है कि इनफ्लूएंजा के वाइरस के कारण फ्लू उत्पन्न होता है, लेकिन सर्दी-जुकाम और फ्लू के लक्षण कमोबेश रूप से लगभग एक जैसे होते हैं। इसके बावजूद अगर किसी व्यक्ति को तेज बुखार के साथ मासपेशियों में भी दर्द की शिकायत है, तो फ्लू के होने की आशका से इनकार नहीं किया जा सकता।

रोग का प्रसार

सर्दी-जुकाम और फ्लू का प्रकोप हवा के जरिये पीड़ित व्यक्ति की छीकों से फैलता है। बीमार व्यक्ति की छीकों के सपर्क में आने या फिर नाक से निकलने वाले द्रव के किसी भी प्रकार से सपर्क में आने से यह रोग फैलता है। जैसे रोगी के रूमाल या उसके द्वारा इस्तेमाल की गयी वस्तुओं के सपर्क में आना। अब सवाल यह उठता है कि सर्दियों में ही यह रोग क्यों ज्यादा फैलता है? इसका कारण यह है कि सर्दियों में वाइरस के सूक्ष्म ड्रॉपलेट या तरल कण हवा में एक बार फिर फैल जाते हैं। इस प्रकार ये वाइरस हवा में तेजी से फैलते है और कहींज्यादा वक्त तक हवा में मौजूद रहते हैं। इससे सक्रमण का खतरा बढ़ जाता है।

इस रोग के प्रसार का दूसरा कारण यह है कि नाक का आतरिक भाग सर्दियों के मौसम में शुष्क हो जाता है। इस स्थिति मे नाक का सुरक्षा आवरण कमजोर हो जाता है। नाक में एलर्जी की समस्या से ग्रस्त व्यक्तियों को सर्दी-जुकाम और फ्लू का सक्रमण होने की आशकाएं ज्यादा होती हैं।

रोकथाम

-शरीर के रोग-प्रतिरोधक तत्र को सशक्त बनाकर सर्दी-जुकाम और फ्लू आदि बीमारियों से बचाव किया जा सकता है।

-शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता को सतुलित व पौष्टिक भोजन ग्रहण कर बढ़ाया जा सकता है।

-एंटीऑक्सीडेंट्स युक्त खाद्य पदार्र्थो को खान-पान में वरीयता दें। फलों व सब्जियों में एंटीऑक्सीडेंट्स पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं।

-अत्यधिक वसायुक्त व चिकनाईयुक्त खाद्य पदार्थ कभी-कभार ही लें। इनसे परहेज करना बेहतर है।

-डॉक्टर के परामर्श से विटामिस व मिनरल्स की टैब्लेट्स भी ले सकते हैं, लेकिन याद रखें, ये सप्लीमेंट पौष्टिक-सतुलित खान-पान का विकल्प नहीं हैं।

-किसी भी खाद्य पदार्थ को खाने से पहले साबुन से अच्छी तरह हाथ साफ करें।

-तापक्रम में अचानक परिवर्तन वाली स्थिति से बचें। जैसे बद कमरे से अचानक खुली हवा में न आएं।

इलाज

-बुखार की स्थिति में पैरासीटामॉल की टैब्लेट लें।

-शरीर में दर्द व खासी आदि अन्य लक्षणों के प्रकट होने पर डॉक्टर के परामर्श से दवाएं ली जा सकती हैं।

-पर्याप्त विश्राम करें।

-पर्याप्त मात्रा में पानी व तरल पदार्थ ग्रहण करें।


सर्दियों का मौसम आते ही अस्पतालों या डॉक्टरों की केबिन में गर्दन या कमर दर्द की समस्या से ग्रस्त लोगों की सख्या काफी बढ़ जाती है। इसका कारण यह है कि सर्दियों के कारण मासपेशियों और रीढ़ की हड्डियों के जोड़ों (ज्वाइंट्स) में सिकुड़न होने से अन्य मौसमों की तुलना में उपर्युक्त स्वास्थ्य समस्या इस मौसम में कहींज्यादा बढ़ जाती है।

हालाकि ऐसे रोगियों को मामूली दवाओं और कुछ व्यायाम करने से राहत तो मिल जाती है, लेकिन सभी रोगी इतने भाग्यशाली नहीं होते। लबे समय तक दर्द के प्रति लापरवाही और गलत जीवनशैली रोगियों को स्पाइनल अर्थराइटिस के सामने घुटने टेकने पर मजबूर कर देती है, लेकिन इस बीमारी को मुंह तोड़ जवाब देने के लिए ट्रिपल एस (सेफ स्पाइनल सर्जरी) तकनीक भी ईजाद कर ली गयी है, जो स्पाइनल अर्थराइटिस को सफलतापूर्वक मात दे रही है।

कारण

-गलत मुद्राओं (राग पोस्चर्स) में बैठकर कार्य करना। जैसे बैठते, उठते और चलते वक्त रीढ़ की हड्डी को सीधा न रखना।

-लबे समय तक कुर्सी पर बैठकर काम करना।

-काम के कारण अत्यधिक तनाव।

-मोटापे से ग्रस्त होना।

-लबे समय तक सफर करने वाली नौकरी करना, गाड़ी चलाना, टेलीविजन देखना, कंप्यूटर या फिर लैपटॉप पर काम करना

लक्षण

-हाथ-पैर का बार-बार सुन्न होना और इनमें झनझनाहट महसूस करना।

-थोड़ा सा काम करने के बाद थकावट महसूस करना।

-कमजोरी महसूस करना।

-गर्दन में अकड़न होना।

-कमर में लचीलापन कम होना।

क्या है ट्रिपल एस

स्पाइनल सर्जरी के सदर्भ में रोगियों के मध्य कई तरह की भ्रातिया व्याप्त हैं। रोगी अक्सर यह मान बैठते हैं कि स्पाइनल सर्जरी बेहद जटिल होती है और इसमें सफलता भी बेहद कम मिलती है। जबकि चिकित्सा विज्ञान की प्रगति ने इस सर्जरी को बेहद सुरक्षित व कारगर बना दिया है। ट्रिपल एस सर्जरी वह तकनीक है जिसमें बेहद कम चीर-फाड़ और एक सूक्ष्म छेद की मदद से पूरा ऑपरेशन किया जा सकता है। ऑपरेशन के दौरान इंट्राऑपरेटिव, फ्लोरोस्कोपी और सीटी स्कैन की मदद से बेहद सटीक तरीके से इलाज किया जाता है। इस सर्जरी में लेजर का भी इस्तेमाल किया जाता है ताकि सामान्य(नॉर्मल) हड्डी और स्पाइन डिस्क को काटे बगैर हड्डी में सिर्फ एक छेद करके ऑपरेशन किया जा सके। लेजर सर्जरी के अंतर्गत रीढ़ की नसों(न‌र्व्स) के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जाती। इसलिए नसों के क्षीण होने का खतरा खत्म हो जाता है। इसी तरह हड्डी का मूल ढाचा भी बरकरार रहता है, साथ ही उसमें शक्ति और लचीलापन भी बना रहता है।

इलाज कराएं और घर जाएं

इस सर्जरी के तुरंत बाद रोगी को बिस्तर से उठाकर चलाया जा सकता है। सर्जरी के एक या दो दिनों बाद रोगी को डिसचार्ज कर दिया जाता है। ट्रिपल एस तकनीक से की गयी सर्जरी के बाद रोगी को दोबारा बेल्ट या फिर किसी और वस्तु का सहारा नहीं लेना पड़ता। ऐसा इसलिए, क्योंकि इस सर्जरी के बाद हड्डी का मूल ढाचा बरकरार रहता है।

सीओपीडी को हराना है

सर्दियों के मौसम में क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) के मामले बढ़ जाते हैं। देश में इन दिनों लगभग एक करोड़ तीस लाख से अधिक लोग इस रोग के चलते सासों की तकलीफ झेल रहे हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार सीओपीडी विश्व में विभिन्न रोगों (हृदय रोग, स्ट्रोक और कैंसर के बाद ) से होने वाली मौतों का चौथा कारण है।

मुख्य लक्षण व रोग की जटिलता

लगातार खाँसी आना, बलगम आना, साँस में तकलीफ होना। ये लक्षण अधिकतर 40 वर्ष से अधिक के वयस्कों में मिलते हैं जो लम्बे समय तक धूम्रपान कर चुके हैं। धूम्रपान करने से कार्बन के कण सास नली में जमा हो जाते हैं जिससे वहाँ पर सूजन व अवरोध पैदा हो जाता है। इस कारण रोगी को सास लेने में तकलीफ होने लगती है। बीमारी बढ़ जाने पर रोगी को बार-बार अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है।

इनहेलर्स का इस्तेमाल

चिकित्सा जगत में नये शोध-अध्ययनों से यह साबित हो चुका है कि इनहेलर्स के प्रयोग से सीओपीडी के लक्षणों पर नियन्त्रण रखा जा सकता है। बावजूद इसके यह कड़वा सत्य है कि इस बीमारी को नियत्रित तो किया जा सकता है लेकिन पूर्णतया समाप्त नहीं किया जा सकता। रोगी के लिए यह अति आवश्यक है कि वह धूम्रपान करना तुरन्त छोड़ दे और डॉक्टर की सलाह पर नियमित तौर पर अमल करे।

इस बीमारी में प्रयोग होने वाली दवाएं अब तक गोली, कैप्सूल व इंजेक्शन के रूप में दी जाती थीं, लेकिन अब अच्छी दवाएं इन्हेलर के रूप में प्रयोग की जाती है। डॉक्टर इनहेलर का अपने रोगियों पर इस्तेमाल कराते हैं, जिसमें टायोट्रोपियम, इप्राट्रोपियम, साल्मेट्राल, फार्मेट्राल नामक तत्वों से युक्त दवाएं होती हैं। इनका इस्तेमाल दिन में दो या तीन बार किया जाता है। इनसे बीमारी को काफी हद तक नियत्रित किया जा सकता है।

बीमारी की तीव्रता और इलाज

सीओपीडी में रोगी को सर्दियों में खासकर इसकी शुरुआत में अक्सर फेफड़े में सक्रमण हो जाता है। इस कारण फेफड़े के कार्य करने की क्षमता बहुत कम हो जाती है और रोगी को सास लेने बहुत तकलीफ होती है और शरीर में ऑक्सीजन की कमी होने के कारण उसे अस्पताल में भर्ती करना पड़ता है। इस स्थिति को एक्यूट इक्सासरबेशन (बीमारी की तीव्रता बढ़ जाना) कहते हैं। काफी रोगियों की इस स्थिति में मृत्यु भी हो जाती है। इस रोग का इलाज करने के लिये सास रोग विशेषज्ञ की आवश्यकता पड़ती है। ऐसी स्थिति में रोगी के लिए बाई पैप नामक मशीन का इस्तेमाल किया जाता है, जो एक तरह का वेन्टीलेटर होता है और रोगी को सास नली में कृत्रिम नली नहीं लगानी पड़ती है। स्थिति के ज्यादा बिगड़ने पर बड़े वेन्टीलेटर पर भी रखना पड़ता है। अधिकतर मरीजों को वेन्टीलेटर पर नींद आने की दवाएं देना आवश्यक होता है, अन्यथा पीड़ित व्यक्ति को काफी नुकसान होने की सभावना रहती है। अधिकतर रोगी 5 से 6 दिनों में ठीक हो जाते हैं क्योंकि यह स्थिति इन्फेक्शन की वजह से होती है। इसलिए महंगी एन्टीबायोटिक्स देनी पड़ती है। यह एक महंगा इलाज है, क्योंकि इस स्थिति में रोगी को सास लेने में बहुत ज्यादा तकलीफ होती है। वह अपनी नियमित दवाओं का जैसे इन्हेलर व गोलियों का इस्तेमाल नहीं कर पाता है। इस कारण अस्पताल में अधिकतर दवाइया नेबूलाइजर के द्वारा दी जाती हैं, क्योंकि ये दवाएं बहुत तेजी से कारगर होती हैं।

बचाव

इस गंभीर बीमारी से बचने का एक मात्र तरीका है कि लोगों को धूम्रपान नहीं करना चाहिए। इसके अलावा पीड़ित व्यक्ति को वायु प्रदूषण के माहौल से बचना चाहिए। एक बार बीमारी होने पर उसे नियत्रित किया जा सकता है। इन दिनों कुछ वैक्सीन्स उपलब्ध हैं, जिनसे बार-बार होने वाले इन्फेक्शन की तीव्रता को कम किया जा सकता है, लेकिन इन दवाओं का प्रयोग डॉक्टर की सलाह से ही किया जाना चाहिए।



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