Tuesday 12 February 2013

स्वाइन फ्लू: सजगता से संभव है समाधान

उत्तर भारत के कई राज्यों में इन दिनों स्वाइन फ्लू का प्रकोप जारी है। अगर कुछ सजगताओं पर अमल किया जाए, तो इस रोग से बचा जा सकता है। समय रहते समुचित इलाज कराने से इस रोग को दुरुस्त किया जा सकता है..

स्वाइन फ्लू एक सक्रामक सास सबधी रोग है। यह रोग एच1एन1 वाइरस से होता है। यह वाइरस सक्रमित व्यक्ति के छींकने या खासते वक्त निकलने वाली दूषित सूक्ष्म बूंदों के साथ सास के जरिये शरीर में प्रवेश कर जाता है।

लक्षण

-स्वाइन फ्लू के लक्षण साधारण फ्लू के लक्षणों से मिलते-जुलते हैं।

-बुखार आना, खासी और गले में खराश।

-नाक का बहना।

-शरीर में दर्द,सिर दर्द, ठंड लगना और थकान महसूस करना।

-इसके अतिरिक्त मौसमी फ्लू की तुलना में स्वाइन फ्लू का हमला दस्त और उल्टी सरीखी गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल समस्याएं भी पैदा कर सकता है।


इन बातों पर दें ध्यान

दमा, मधुमेह और हृदय रोगों से ग्रस्त लोगों को अस्पताल में भर्ती करने की जरूरत कहीं ज्यादा होती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि स्वाइन फ्लू के कारण उनके रोग की स्थिति और भी गभीर हो सकती है।

डॉक्टरों के लिये सबसे अधिक चिता का विषय गर्भवती महिलाएं हैं। जब उनके गर्भ में पल रहा शिशु बढ़ता है, तब उनके फेफड़ों की क्षमता कम हो जाती है। इस कारण जब उन पर स्वाइन फ्लू का हमला होता है तो उन्हें सास लेने में दिक्कत महसूस होती है। यही नहीं,गर्भवती महिलाओं में वाइरस से सबधित बीमारियों के होने की आशकाएं कहीं अधिक बढ़ जाती हैं।

बच्चों में तत्रिका तत्र से सबधित जटिलताएं जैसे बेहोशी, चिड़चिड़ापन या याददाश्त में कमी की समस्याएं पैदा हो सकती हैं, जबकि वयस्कों में अचानक चक्कर आना या भ्रम उत्पन्न होने जैसी समस्याएं पैदा हो सकती हैं।

क्या करें तब, जब हो कोई बीमार

-जब परिवार का कोई सदस्य स्वाइन फ्लू से ग्रस्त हो जाता है, तो उसे अनिवार्य तौर पर घर के एक कमरे में अन्य लोगों से अलग रखा जाना चाहिए।

-घर के सभी लोगों को नियमित तौर पर अच्छी तरह से हाथ धोने चाहिए।

-इसके अलावा रोगी की सेवा करने वालों को हाथ धोने के मामले में खास सावधानी बरतनी चाहिए। उन्हें मुंह पर पूरी तरह से टाइट सर्जिकल मास्क लगाना चाहिए। सेवा करनेवाले व्यक्ति को रोगी के कपड़ों को धोने में खास सावधानी बरतनी चाहिए और उन्हें अपने शरीर से नहीं सटाना चाहिए।

-घर के फर्श को कीटनाशकों से नियमित रूप से साफ किया जाना चाहिए।

बचाव

सक्रमण फैलने से रोकने के लिये आपको छींकते या खासते समय अपने नाक और मुंह को टिश्यू पेपर या रूमाल से ढक लेना चाहिये। इस्तेमाल किये गये टिश्यू पेपर को फेंक देना चाहिए। आख,कान नाक और मुंह को छूने से बचना चाहिये ताकि दूषित चीजों से सक्रमण नहीं हो। स्वाइन फ्लू से ग्रस्त जिन लोगों की स्थिति गभीर नहीं है,उन्हें घर में रहना चाहिए। इस रोग से बचाव के लिए वैक्सीन भी उपलब्ध है, जिसे डॉक्टर के परामर्श से ही लगवाएं।

समुचित इलाज कराएं

कानपुर के वरिष्ठ सास रोग विशेषज्ञ डॉ. ए.के.सिह के अनुसार इस रोग की प्रमुख दवा टैमी फ्लू है। इसका इस्तेमाल डॉक्टर के परामर्श के बगैर नहींकरना चाहिए। कभी-कभी स्वाइन फ्लू के रोगी के निकट सपर्क में आने वाले लोगों पर भी इस दवा का इस्तेमाल किया जाता है।

डॉ.सिह की राय है कि स्वाइन फ्लू के लक्षणों के आधार पर यह बताना अत्यत कठिन है कि कि यह साधारण इंफ्लूएंजा है या फिर स्वाइन फ्लू। सिर्फ जाच के बाद ही यह निश्चित किया जा सकता है कि अमुक व्यक्ति स्वाइन फ्लू से ग्रस्त है। उनके अनुसार बुखार उतारने के लिए साधारण पैरासीटामॉल का प्रयोग किया जाना चाहिए। पेनकिलर्स और स्टेरायड्स दवाओं का इस्तेमाल न करें।

जाच: 'थ्रोट सिक्रीशन' की जाच से इस रोग के वाइरस एच1एन1 का पता चलता है।

इसलिए कहते हैं स्वाइन फ्लू

अंग्रेजी के स्वाइन शब्द का अर्थ सुअर होता है। शुरुआत में सुअरों में इस वाइरस के पाए जाने के कारण इसे स्वाइन फ्लू कहा जाने लगा। अनेक कारणों से कालातर में इस रोग का सक्रमण मनुष्यों में हुआ। अब यह रोग स्वाइन फ्लू से ग्रस्त किसी व्यक्ति के सपर्क में आने से दूसरे व्यक्तियों में फैल रहा है।

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Monday 11 February 2013

ब्‍लैडर कैंसर क्‍या है

ब्लैडर में असामान्य कोशिकाओं की अनियंत्रित वृद्धि के कारण ब्लैडर का कैंसर होता है।

यह वो गुब्बारेनुमा अंग है जो यूरीन का संग्रह करता है और उसे निष्कासित करता है । ब्लैडर की आंतरिक दीवार नये बने यूरीन के सम्पर्क में आती है और इसे मूत्राशय की ऊपरी परत कहते हैं । यह ट्रांजि़शनल सेल्स/कोशिकाओं द्वारा घिरा होता है जिसे कि यूरोथीलियम कहते हैं । कोशिकाओं की परत के नीचे मांस पेशियों की एक परत होती है जो कि ब्लैडर के सिकुड़ने के साथ यूरीन को निष्कासित करती है जिससे यूरीन यूरेथ्रा नामक ट्यूब से निष्कासित किया जाता है । (एक तरफ ब्लैडर किडनी से यूरेटर नामक ट्यूब से यूरीन प्राप्त करता है)।


मांस पेशियों के ब्लैडर की बाहरी दीवार की परत को सेरोसा कहते हैं जो कि फैटी टिश्‍यू, एडिपोज़ टिश्यूज़ या लिम्फ नोड्स के बहुत पास होता है । ब्लैडर कैंसर ब्लैडर की परत से शुरू होता है । 70 से 80 प्रतिशत ब्लैडर कैंसर के मरीज़ों में कैंसर का पता तभी लग जाता है कि जबकि यह बाहरी सीमित होती है, बाहरी सतह में होती है और ब्लैडर की दीवार की आंतरिक सतह में होती है । कैंसर जब ब्लैडर की बाह्य दीवार में शुरू होता है तो इसे सुपरफीशियल कैंसर कहते हैं और यह असामान्य कोशिकाओं में पृथक धब्बे / आइसोलेटेड पैच की तरह दिखता है । अगर ब्लैडर की आंतरिक दीवार पर उंगलीनुमा निकला हुआ हिस्सा पाया गया तो इसे पैपिलरी ट्रांजिंशनल सेल कैंसर कहते हैं ।

कभी–कभी ट्यूमर का पता तब लगता है जबकि यह गहरे तौर पर ब्लैंडर की आंतरिक दीवार से लेकर लिम्फ नोड्स और दूसरे अंग में फैल चुका होता है ।

ब्‍लैडर कैंसर का एक और प्रकार है जिसे कि कारसिनोमा इन सीटू कहते हैं, जिसका अर्थ है कि यह कैंसर सिर्फ उसी स्थान पर रहता है जहां पर इसकी शुरूआत हुई होती है । हालांकि यह कैंसर ब्लैडर को बहुत गहराई से नहीं प्रभावित करता है लेकिन इसके कुछ लक्षण हैं जैसे यूरीनेशन के दौरान जलन होना । ऐसा भी हो सकता है कि चिकित्सक द्वारा साइटोस्कप से जांच करने के बाद भी यूरोलोजिस्ट इस बीमारी को ना पकड़ पाये । जांच के लिए ब्लैडर की बाह्य दीवार का जो हिस्सा लाल लगे वहां की बायोप्सी करनी होती है ।

इसका पता एक दूसरी जांच से भी लगाया जाता है जिसे कि यूरीन साइटालाजी कहते हैं और इसमें यूरीन की कोशिकाओं की जांच की जाती है । इस जांच में यूरीन का एक नमूना लिया जाता है और माइक्रोस्कोप के अंदर उसकी जांच कर कैंसर की कोशिकाओं का पता लगाया जाता है ।

ब्लैडर कैंसर के तीन प्रकार हैं और सभी में अलग– अलग तरह की कोशिकाएं होती हैं : लगभग 90 प्रतिशत ब्लैरडर के कैंसर ट्रांजि़शनल सेल कार्सिनोमाज़ कहलाते हैं, 6 से 8 प्रतिशत स्क्‍वामस सेल कार्सिनोमा और 2 प्रतिशत एडेनोकार्सिनोमाज़ होते हैं ।


अब तक ब्लैडर कैंसर के कारणों को सिर्फ आंशिक तौर पर ही समझा गया है । ऐसा अनुमान लगाया गया है कि ज्यादातर ट्रांजि़शनल सेल कार्सिनोमाज़ कार्सिनोजन (कैंसर के कारक पदार्थे) के कारण होते हैं जैसे तम्बाकू और वातावरण में मौजूद दूसरे रासायन । धूम्रपान करने वालों में ब्लैडर के कैंसर के होने की सम्भावना सामान्य व्यक्ति से दो से चार गुना अधिक होती है । हालांकि ऐसा भी पाया गया है कि ब्लैडर कैंसर के मरीज़ों में से सिर्फ आधे ही धूम्रपान करने वाले पाये गये हैं । ब्लै‍डर कैंसर औद्योगिक रासायनों के सम्पर्क में आने से भी हो सकता है । यह औद्योगिक कार्सिनोजन हैं एनिलीन डाई, पालीसाइकलिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन जैसे (2-नैपथिलामीन ,4- एमाइनोबाइफिनाइल या बेन्जि़डीन) पालीक्लोरीनेटेड बाइफेनाइल या वो रासायन जिनका प्रयोग एल्युमिनियम, रबर, रासायन और चमड़ा उद्योग के निर्माण में होता है और यहां तक कि यह रासायन ड्राइक्लीनर्स द्वारा, चिमनी से निकलनेवाले रासायन, हेयर ड्रेसर द्वारा, पेन्टर द्वारा, कपड़े का काम करने के दौरान और ट्रक चलानेवालों द्वारा भी वातावरण में मुक्त, किया जाता है ।

विकासशील देशों में, एक परजीवी संक्रमण जिसे कि सीज़ोसोमियासिस कहते हैं वो ब्लैडर कैंसर का खतरा बढ़ाता है । वो मरीज़ जिनमें लम्बे  समय से ब्लैडर की पथरी है उनमें ब्लैडर की दीवार पर सूजन और लम्बे समय तक जलन के कारण  कैंसर का खतरा बढ़ जाता है । वो मरीज़ जिनमें पहले कभी ब्लैडर कैंसर हो चुका है उनमें इस बीमारी के दोबारा होने की आशंका होती है । कैंसर की चिकित्सा के बाद आसपास की जगह में या ब्लैडर में या यूरेटर में (वह ट्यूब जो यूरीन को किडनी से ब्लैडर तक ले आता है)...

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Friday 8 February 2013

हेल्दी रहना है तो दांतों की भी फिक्र करें

आज हम सभी अपने स्वा स्य्ों  को लेकर जागरूक हैं। सर्दी, जु़काम हो या सरदर्द हमें पता है कि इस स्थिसति में क्याक करना है। लेकिन मुंह स्वांस्य्ैं  को लेकर आज भी लोगों में जागरूकता की कमी है।  

डॅाक्टसर अपर्णा शर्मा का कहना है कि दांतों और मसूड़ों की समस्याजओं से बचने के लिए ब्रशिंग और फ्लॅासिंग के साथ चिकित्साक से मिलना ज़रूरी है। दिन में एक बार फ्लासिंग करें और सोने से पहले ब्रश ज़रूर करें।  

दांतों की सामान्य् समस्या एं:
•    दांतों में छेद : अधिक मीठा खाने पर या कई अन्यै कारणों से हमारे मुंह में मौजूद बैक्टीरिया एसिड पैदा करने लगते हैं, जिससे दांतों में छेद (कैविटीज़) हो जाती हैं। 
•    प्लॅााक और टारटर: प्लॅािक हर एक के दांतों में होता है। दांतों की सफाई करने के तुरंत बाद, प्लॅा क  का बनना शुरू हो जाता है। अगर इसे रोजाना अच्छी तरह से साफ  नहीं किया गया तो इसे कठोर टारटर में तब्दील होने में ज्यादा देर नहीं लगेगी।
•    जिंजिवाइटिस:यह मसूड़ों की बीमारी है, जिसमें मसूडें सूज जाते हैं या इनसे खून रिस सकता  है।
•    पेरिओडोन्टाल  रोग: यह मसूड़ों का गंभीर रोग है, जो दांतों से जुड़ी हड्डी तथा उसके आस-पास के उत्तको को भी नष्ट कर देता है।  

क्याप आप जानते हैं:
•    इनेमल शरीर का सबसे कठोर भाग होता है।  
•    हमारी जीभ जहां व्यंकजनों का स्वा्द लेने में हमारी मदद करती है वहीं यह चिकित्सगकों को हमारी बीमारी का भी पता देती है। 
•    हमारा मुंह किसी भी बीमारी को सबसे पहले दर्शाता है। 
•    मुंह के अंदर की रेखा को ‘ओरल म्यूरकोसा’ कहते हैं और इसका लाल या गुलाबी रंग का होना स्व स्थ  शरीर का संकेत देता है।

दांतों का स्वादस्य्ो   हमारे संपूर्ण स्वा’स्य्ैं  को प्रभावित कर सकता है और गंभीर बीमारियों को भी जन्मक दे सकता है, तो आज से ही सजग हो जायें।

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Thursday 7 February 2013

फ्लू से बचाव


इन्फ्लूएंजा के हमले से बचाव के लिए विकल्पों में हाल के वर्षों में तेजी से वृद्धि हुई है।

टीका

प्रत्येक वर्ष स्कूली आयु वर्ग के बच्चों सहित उन सभी लोगों को टीकाकरण की सलाह दी जाती है जो इन्फ्लूएंजा से बीमार होने या दूसरों को इन्फ्लूएंजा संचारण के जोखिम को कम करना चाहते हैं।

टीकाकरण की सलाह विशेष रूप जिन्हें दी जाती है वे हैं:

  • उम्र के 6 महीने से 18 साल की आयु वर्ग के सभी बच्चे और किशोर, खासकर वे जो दीर्घकालिक एस्पिरिन चिकित्सा करवा रहे हैं और इसलिए जिन्हें इन्फ्लूएंजा संक्रमण के बाद "रिये" सिंड्रोम से ग्रस्त होने का जोखिम हो सकता है 
  • वे सभी लोग जो 50 वर्ष की आयु अधिक के हैं; 
  • महिलायें जो गर्भवती हैं या इन्फ्लूएंजा के मौसम के दौरान गर्भवती होंगी;
  • वयस्क और बच्चे जिन्हें दीर्घकालिक फेफड़े के (अस्थमा सहित), हृदय (उच्च रक्तचाप को छोड़कर), गुर्दे, यकृत, रक्त या,  चयापचयी (मेटाबोलिक) विकार हैं (डायबिटीज मेलिटस सहित);
  • वयस्क और बच्चे जिनकी प्रतिरक्षा प्रणाली कमज़ोर है (इम्युनोसप्रैसिव दवाओं या ह्यूमन इम्यूनोडेफिशिएन्सी वायरस की वजह से);
  • वयस्क और बच्चे जो किसी भी ऐसी हालत में (जैसे, संज्ञानात्मक दुष्क्रिया, स्पाइनल कॉर्ड की चोटें, जब्ती विकार, और अन्य न्युरोमस्कुलर विकार) हैं जिससे फेफड़ों की कार्यक्षमता या श्वसन स्रावों के संचालन की प्रक्रिया आहत हो सकती है या जीवन के लिए खतरा बढ़ सकता है;
  • नर्सिंग होम और अन्य पुरानी देखभाल सुविधाओं के निवासी;
  • स्वास्थ्य सेवा कर्मचारी;
  • वयस्कों या बच्चे जो कम से कम 5 वर्षों (विशेष रूप से 6 माह से कम आयु वर्ग के बच्चे) के आयु वर्ग के बच्चों और 50 वर्ष से अधिक आयु के वयस्कों के साथ निकट संपर्क में हैं;
  • वयस्क या बच्चे जो उन लोगों के साथ निकट संपर्क में हैं जो चिकित्सा की उस स्थिति में हैं जो उन्हें इन्फ्लूएंजा की गंभीर जटिलताओं के उच्च जोखिम में डालती हैं;
  • फ्लू के मानक टीके 65 वर्ष की कम आयु के स्वस्थ लोगों में, बीमारी से बचाव या इसकी गंभीरता को कम करने में 70% से 90% तक प्रभावी है। अधिकतम प्रभावशीलता के लिए, डॉक्टर लोगों को अक्टूबर या नवंबर, जो कि फ्लू के मौसम का प्रारंभ होता है, में टीकाकरण की सलाह देते हैं।


2 और 49 के बीच के आयुवर्ग के स्वस्थ लोगों के लिए फ्लू शॉट के लिए एक अन्य विकल्प है। फ्लूमिस्ट एक अन्त्र्नासिकीय  टीके का स्प्रे है जो कि समान संरक्षण प्रदान करता है। इसमें, शॉट में मारे गए वायरस के बजाय एक जीवित निष्क्रिय वायरस का उपयोग होता है। फ्लूमिस्ट किसी भी तरह मानक फ्लू शॉट से अधिक प्रभावी नहीं है। क्योंकि फ्लूमिस्ट इतना नया है इसलिए फ्लू के उच्चतम जोखिम वाले लोगों (49 वर्ष से अधिक आयु के लोग और क्रोनिक स्वास्थ्य स्थितियों वाले लोग) को वैक्सीन इंजेक्शन के रूप में लेनी चाहिए।

स्वच्छता

वायरस आमतौर पर खांसी द्वारा हवा के माध्यम से पारित होता है। यह सीधे संपर्क जैसे हाथ मिलाने या चुंबन से भी पारित होता है। इसी कारण से स्वच्छता आदतों जैसे खांसते हुए मुंह को ढकना और नियमित हाथ धोना, के अभ्यास से आप फ्लू को स्वयं से दूर रखने और दूसरों में फैलाने से बच सकते हैं।

एंटीवायरल दवाएं

ज़नेमिविर (रिलेंज़ा) और ओजेल्टामिविर (टेमिफ्लू) को अगर संभावित संक्रमण से पहले ले लिया जाये तो फ्लू होने की संभावना को 70% से 90% तक कम किया जा सकता है। ज़नेमिविर एक स्प्रे है जिसे मुंह के माध्यम से साँस में छोड़ा जाता है। बाकी सब गोलियाँ हैं।

ऐमनटाडीन और रीमेंटाडीन जैसी पुरानी दवायें जो पहले इन्फ्लूएंजा रोकने के लिए इस्तेमाल जाती थीं, अब अपनी प्रभावशीलता को खो चुकी हैं लेकिन ज़नेमिविर और ओजेल्टामिविर, इन्फ्लूएंजा ए और बी के अधिकांश उपभेदों के विरुद्ध अब भी उपयोगी हैं

ज़नेमिविर नेबुलाइजर से साँस द्वारा दिया जाता है। इसे 5 और उसे अधिक उम्र में रोकथाम के लिए और 7 और उससे अधिक उम्र में इलाज के लिए स्वीकृति प्राप्त है। इसके दुष्प्रभावों में मिचली आना, उल्टी और घरघराहट जो कि विशेष रूप से अस्थमा या क्रोनिक फेफड़ों की बीमारी में होता है, शामिल है।

ओजेल्टामिविर गोली के रूप में उपलब्ध है। इसे एक साल से अधिक आयु के रोगियों में रोकथाम और उपचार के लिए स्वीकृत किया गया है। दुष्प्रभावों में मिचली और उल्टी आना शामिल हो सकता है।

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Wednesday 6 February 2013

फाइलेरिया से बचाव


फाइलेरिया नियंत्रण के लिए उपाय निम्नानुसार हैं; 

  • जो लोग  फाइलेरिया रोग से संक्रमित है उनकी पहचान की जाये और उनके रक्त का उचित उपचार किया जाये ताकि उनसे यह रोग दूसरों को न फैले और।
  • मच्छर रोधी उपाय अपनाये जाएँ ।


राष्ट्रीय फाइलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम; 

  • इस कार्यक्रम के अंतर्गत  सूक्ष्म कीड़े को मारने की दवाई दी जाती है जिससे कीड़ों के  पूरे समुदाय का खात्मा हो जाये।
  • इस कार्यक्रम के अंतर्गत ऐसे मच्छर विरोधी उपायों का उपयोग किया जाता है जिससे कि ग्रामीण क्षेत्रों और शहरी इलाकों में जो एंटीलार्वल  दवाओं का  साप्ताहिक अंतराल पर छिडकाव किया जा सके।  इन् उपायों में ऐसे कीटनाशक दवाओं का उपयोग शामिल किया गया है जिससे कि  मच्छरों के लार्वा, जैसे टेम्पेफोस , फ़ेन्थिओन इत्यादि को मारा जा सके। ऐसे गड्ढों को भी भरने का इंतजाम है जिससे कि  मच्छर के प्रजनन पर  नियंत्रण पाया जा सके। 
फाइलेरिया को रोकने का एक अन्य प्रमुख उपाय यह है कि  आप मच्छर के काटे जाने से बचें।  क्यूलेक्स मच्छर जिसके कारण फाइलेरिया का संक्रमण फैलता है आम तौर पर शाम और सुबह के वक्त काटता है।  यदि आप किसी ऐसे क्षेत्र में रहते हैं जहां फाइलेरिया फैला हुआ हो तो खुद को मच्छर के काटने से बचाएँ।  मच्छर के काटने से बचने के उपायों में निम्न उपाय शामिल हैं:


  • सुरक्षात्मक कपडे पहने; मसलन आपके पैंट एवं शर्ट ऐसे हो जिनसे आपका पूरा पाँव और बांह ढक जाए।
  • आवश्यकता पड़े तो  पेर्मेथ्रिन युक्त (पेर्मेथ्रिन एक आम सिंथेटिक रासायनिक कीटनाशक होता है) कपड़ों का उपयोग करें।  बाजार में पेर्मेथ्रिन युक्त कपडे मिलते हैं।
  • अगर जरूरत पड़े तो कीट विकर्षक का प्रयोग करें।   डी ई ई टी  नामक कीट विकर्षक तरल पदार्थ, लोशन और स्प्रेज़ के रूप में उपलब्ध रहता है । आपकी  त्वचा का जो खुला हुआ भाग रहता हो उसपर डी ई ई टी  नामक कीट विकर्षक लगायें।  आपको कितनी देर के लिए मच्छरों  से सुरक्षा चाहिए इस बात पर निर्भर करता है  कि आप कीट विकर्षक  डी ई ई टी  कितना गाढ़ा लेते हैं।  ज्यादा गाढ़ा डी ई ई टी   लगायेंगे तो आपको ज्यादा देर तक संरक्षण मिलेगी।
  • अगर आपके घर की खिडकियों में मच्छर रोकने की जाली नहीं लगी हुई हो तो उन्हें बंद रखें ताकि मच्छर अंदर प्रवेश नहीं कर सकें।
  • मच्छरों को मारने के लिए कीट स्प्रे से छिडकाव करें।

फाइलेरिया के कारण


भारत के अधिकांश भागों में फाइलेरिया एक ऐसे परजीवी के कारण होता है जिसे वुचेरेरिया   वानक्रोफ़टी के रूप में जाना जाता है।   इस तरह का संक्रमण भारत के  शहरी और ग्रामीण, दोनों क्षेत्रों में आम बात है। एक व्यक्ति से दूसरे तक यह रोग स्थानांतरित करने में क्यूलेक्स नामक मच्छर  रोगवाहक का काम करता है।  जो वयस्क परजीवी होता है वह छोटे और  अपरिपक्व माइक्रोफिलारे  को जन्म देता है और एक वयस्क परजीवी अपने 4-5 साल के जीवन काल में लाखों माइक्रोफिलारे   लार्वा पैदा करता है। माइक्रोफिलारे  आमतौर पर व्यक्ति के रक्त परिधीय  में रात में प्रसारित होता है।  यह बीमारी एक संक्रमित मच्छर क्यूलेक्स के काटने से फैलता है।  जब कोई क्यूलेक्स मच्छर एक संक्रमित व्यक्ति को काटता है तो उस व्यक्ति से माइक्रोफिलारे  उस मच्छर के शरीर में प्रवेश कर जाता है।  मच्छर के शरीर में  माइक्रोफिलारे  7-21 दिनों में विकसित होता है।  इसके बाद जब संक्रमित मच्छर किसी स्वस्थ व्यक्ति को काटता है तो उस व्यक्ति को भी यह रोग लग जाता है। 
एक अन्य परजीवी, जिसके  कारण फाइलेरिया होता है उसे  ब्रूगिया मलाई  कहा जाता है।  यह मानसोनिया  (मानसोनियोडिस) एनूलीफेरा  द्वारा फैलता है।  ब्रूगिया मलाई  का संक्रमण मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में पाया जाता है।  डब्ल्यू वानक्रोफ़टी और बी मलाई   दोनों के माइक्रोफिलारे  के संक्रमण की प्रदर्शनी रात की अवधि में हीं अधिकांशतः होती है।

संक्रमित मच्छर के काटने के बाद फाइलेरिया को विकसित होने में आमतौर पर कई महीने या वर्ष लग जाते हैं। जिन  क्षेत्रों में  फाइलेरिया आम बात होती  है उन क्षेत्रों में ज्यादा  समय तक रहने से आपके संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है।  लेकिन जो पर्यटक अल्पकाल के लिए किस ऐसे क्षेत्र  का भ्रमण करते हैं जहाँ फाइलेरिया फैला हुआ होता है तो उतने कम समय में उन्हें इस रोग से ग्रसित होने का खतरा बहुत कम होता है।

फाइलेरिया के लक्षण


ज्यादातर लोगों को शुरू में पता हीं नहीं चल पाता है कि  वे लिंफ़ फाइलेरिया के शिकार हो गए हैं। फाइलेरिया कोई जानलेवा बीमारी तो नहीं है लेकिन इसके संक्रमण से लसीका प्रणाली और गुर्दों के स्थायी रूप से क्षतिग्रस्त होने का जोखिम रहता है।  प्रारंभिक चरणों में इस रोग के किसी लक्षण का पता हीं नहीं चलता और समस्याओं की शुरुआत तब  से होती है जब  वयस्क कीड़े मर जाते हैं।  जब इस रोग के शिकार व्यक्ति कि   लसीका प्रणाली क्षतिग्रस्त हो जाती है तब उस व्यक्ति की बाहों, स्तनों, और पैरों में द्रव संगृहीत होने लगता है जिसकी वजह से उन अंगों में सूजन आ जाती है। इस प्रकार की सूजन को  लिम्फेदेमा  कहा जाता है।  पुरुषों में वृषणकोश में सूजन हो सकती है।  इस प्रकार के सूजन को हाईड्रोशील कहा जाता है।  पैर, हाथ, या जननांग के क्षेत्र में सूजन पुरुषों के अपने सामान्य आकार से कई गुणा ज्यादा हो सकता है।

अंगों में सूजन होने से तथा लसीका प्रणाली के क्षतिग्रस्त होने से त्वचा और लसीका प्रणाली में जीवाणु के संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है।  बार बार  संक्रमण के हमले से रोगी की त्वचा  सख्त और मोटी हो जाती है जिसे  फ़ीलपाँव के रूप में जाना है।  फाइलेरिया के दुर्लभ अभिव्यक्तियों में उष्णकटिबंधीय फुफ्फुसीय एसनोफिला और चाईलुरिया  शामिल हैं। आमतौर पर फाइलेरिया के निदान के लिए जिस विधि का इस्तेमाल किया  जाता है उसमें परजीवी  का प्रत्यक्ष प्रदर्शन (लगभग हमेशा माइक्रोफिलारे  के रूप में) रक्त या त्वचा के नमूनों के ऊपर निर्धारित करना शामिल है।  चूँकि  माइक्रोफिलारे  में आवधिकता होती है इसलिए उसके रोगी के खून  का नमूना आमतौर पर रात में लिया जाता है।  फाइलेरिया के निदान  के अन्य जो परिक्षण  हैं उनमें इम्म्युनोडायग्नोस्टिक  एंटीबॉडी  परीक्षण तथा फाइलेरिया प्रतिजन (सी ऍफ़ ए) परिसंचारी की प्रक्रिया शामिल है। 

भारतीय बोझ

फाइलेरिया भारत के कई भागों में प्रचलित है और एक प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या के रूप में माना जाता है।  राष्ट्रीय फाइलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम (एन ऍफ़ सी पी) 1955 में इस रोग पर नियंत्रण पाने के उद्देश्य के साथ शुरू किया गया था।
जो  राज्य फाइलेरिया से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं वे बिहार, केरल, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु हैं। फाइलेरिया के सबसे ज्यादा मामले भारत के बिहार राज्य में पाए जाते हैं (पूरे मामलों का 17% भाग बिहार में होते हैं)।  आंध्र प्रदेश, बिहार, केरल, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में भी यह रोग काफी हद तक फैला हुआ है और ये राज्य माइक्रोफिलारे  के वाहक का काम करते हैं तथा भारत में इस रोग के 97%  मामलों का कारण बनते हैं।
भारत में फाइलेरिया का संक्रमण फ़ैलाने का सबसे बड़ा कारण  डब्ल्यू वानक्रोफ़टी माना जाता है। देश में इस बीमारी का लगभग 98% भाग इसी की वजह से होता है जो राष्ट्रीय बोझ की तरह है ।  यह रोग महिलाओं की तुलना में  पुरुषों में अधिक पाया जाता है।
गोवा, लक्षद्वीप, मध्य प्रदेश और असम जैसे राज्य फाइलेरिया से बहुत कम प्रभावित हैं।
550  लाख से भी अधिक लोगों को फाइलेरिया होने का जोखिम है तथा 21 लाख लोगों में फाइलेरिया होने के लक्षण हैं और लगभग 27 लाख लोग फाइलेरिया के संक्रमण में वाहक का काम कर रहे हैं।

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Tuesday 5 February 2013

घर बैठे करें वज़न घटाने वाले व्यायाम


आप काफी समय से वजन कम करने में प्रयासरत हैं लेकिन फिर भी आप वजन कम नहीं कर पा रहे, क्योंकि आप यह नहीं जानते कि आखिर वजन कम करने का सही तरीका क्या है।


हालांकि ये तो सभी जानते हैं कि वजन घटाने के लिए संतुलित खान-पान के साथ ही वजन घटाने वाले व्यायाम करना भी जरूरी होता है। लेकिन मुश्किल वहां आती है जब आपको ये नहीं पता होता, आखिर वे कौन से व्यायाम है जिनको आप अपनी दिनचर्या में शामिल कर ना सिर्फ अपना वजन कम कर सकते हैं बल्कि अपना वजन भी आसानी से घटा सकते हैं। तो अब चिंता की बात नहीं, आइए हम आपको बताते हैं, अब आप घर बैठे करें वजन घटाने वाले व्यायाम।


  • रोजाना कम से कम आपको 30 मिनट व्यायाम करना होगा। इससे आप आसानी से वजन भी कम करेंगे और दिनभर चुस्त-दुरूस्त भी रहेंगे।
  • कोई भी व्यायाम करने से पहले उसके दिशा-निर्देशों पर भी ध्यान देना जरूरी है। जैसे आप व्यायाम खुले आसमां के नीचे करे और व्यायाम करने से पहले आप खाली पेट हो, साथ ही आपके पास भरपूर समय हो, अन्यथा तनाव में व्यायाम करने से आपको लाभ पहुंचने के बजाय नुकसान भी हो सकता है।
  • हालांकि आप यदि खुले में व्यायाम नहीं करना चाहते तो आप इनडोर वर्कआउट जैसे वॉटर ऐरोबिक्स, स्वीमिंग और योगा इत्यादि भी कर सकते हैं, या फिर आउटडोर वर्कआउट वॉलीबॉल, बैडमिंटन और वॉक इत्यादि भी कर सकते हैं, इससे आपको वजन कम करने में मदद मिलेगी।
  • व्यायाम के माध्यम से वजन कम करने के लिए बाडी की स्ट्रेचिंग खाकर ज्वचाइंट्स की स्ट्रेचिंग करना बहुत फायदेमंद रहता है।
  • हल्के-फुल्के वजज को उठाकर व्यायाम करें, इससे आपकी बाडी फिट और बैलेंस्ड होगी।
  • व्यायाम के दौरान प्रतिदिन जोर-जोर से सांस अंदर-बाहर खींचना चाहिए, इससे पेट पर बल पड़ते हैं और अतिरिक्त चर्बी कम होने लगती है।

  • आप प्रतिदिन डांस को भी अपनी दिनचर्या में शामिल कर सकते हैं। इससे आप निश्चित रूप से फिट रहेंगे।
  • रतिदिन खाना खाने के बाद सुबह-शाम जरूर टहलें, इससे आपका खाना जल्दी पचेगा और एक्सट्रा कैलारी भी बर्न होगी।
  • सूक्ष्म व्यायाम करके भी वजन को कम कर सकते हैं। सूक्ष्म व्या्याम में श्वास प्रश्वांस की क्रियाएं, वक्षस्थल तथा उदर की सभी क्रियाएं कर सकते हैं।
  • प्रणायाम करना वजन कम करने में बहुत ही लाभकारी है। सुबह प्रतिदिन 10 मिनट भी आप प्रणायाम करते हैं तो आप कुछ ही समय में अपने शरीर की अतिरिक्त चर्बी को कम होता हुआ देखेंगे।
  • व्यायाम करने के दौरान ध्यान रहे कि आप अपनी क्षमता के अनुसार ही व्यायाम करें और धीरे-धीरे इसका समय बढ़ा दें। अचानक वर्कआउट खत्म ना करें बल्कि उससे पहले  डीप ब्रीदिंग , मेडिटेशन और स्ट्रेचिंग इत्यादि जरूर कर लें।
  • तनावमुक्त रहकर और अच्छी नींद से भी वजन कम किया जा सकता है। इससे न सिर्फ मन प्रसन्न रहता है बल्कि शरीर में फुर्ती आती है।
  • यदि आप लंबे समय तक फिट रहना चाहते हैं तो आपको अपने खाने को संतुलित करने के साथ ही व्यायाम को भी अपनी दिनचर्या में शामिल करना होगा।

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Monday 4 February 2013

घर बैठे ब्लड प्रेशर का इलाज

भागमभाग और तनाव भरी जिंदगी में लोगों में ब्लड प्रेशर (रक्तचाप) की समस्या पेश आ रही है। जितना घातक हाई ब्लड प्रेशर होता है उतना ही नुकसानदेह लो ब्लड प्रेशर। लो ब्लड प्रेशर की स्थिति वह होती है कि जिसमें रक्तवाहिनियों में खून का दबाव काफी कम हो जाता है। सामान्य रूप से 90/60 एमएम एचजी को लो ब्लड प्रेशर की स्थिति माना जाता है।

क्या हैं लक्षण


  • सुस्ती
  • कमजोरी
  • थकान
  • लो ब्लड प्रेशर के कारण
  • पोषक तत्व रहित भोजन
  • कुपोषण
  • खून की कमी
  • पेट व आंतों, किडनी और ब्लैडर में खून का कम पहुंचना
  • निराशा का भाव लगातार बने रहना


कैसे करें इलाज


  • पिएं चुकंदर का जूस


लो ब्लड प्रेशर को सामान्य रखने में चुकंदर का जूस काफी कारगर होता है। जिन्हें लो ब्लड प्रेशर की समस्या है उन्हें रोजाना दो बार चुकंदर का जूस पीना चाहिए। हफ्ते भर में आप अपने ब्लड प्रेशर में सुधार पाएंगे।

जटामानसी

जटामानसी नामक एक आयुर्वेदिक औषधि भी लो ब्लड प्रेशर का निदान करने में मददगार है। जटामानसी का कपूर और दालचीनी के साथ मिश्रण बनाकर सेवन कर सकते हैं। इसके अलावा जटामानसी के अर्क (पानी के साथ उबालकर) को पीने से भी लो ब्लड प्रेशर की समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है।

एप्सम नमक से नहाएं

एप्सम नमक (मैग्नीशियम सल्फेट) से स्नान लो ब्लड प्रेशर को ठीक करने का सबसे सरलतम इलाज है। इसके लिए पानी में करीब आधा किलो एप्सम नमक मिलाएं और करीब आधा घंटा पानी में बैठें। बेहतर होगा कि सोने के पहले यह स्नान करें।

भोजन में बढ़ाएं पोषक तत्वों की मात्रा

प्रोटीन, विटामिन बी और सी लो ब्लड प्रेशर को ठीक रखने में मददगार साबित होते हैं। ये पोषक तत्व एड्रीनल ग्रंथि से निकलने वाले हार्मोनों के स्राव में वृद्धि कर लो ब्लड प्रेशर को तेजी से सामान्य करते हैं।

यह भी कारगर है लो ब्लड प्रेशर के निदान में

फल और दूध का सेवन

लो ब्लड प्रेशर को दूर करने के लिए ताजे फलों का सेवन करें। दिन में करीब तीन से चार बार जूस का सेवन करना फायदेमंद रहेगा। जितना संभव हो सके, लो ब्लड प्रेशर के मरीज दूध का सेवन करें।

पैदल चलें और साइकिल चलाएं

लो ब्लड प्रेशर के मरीजों के लिए पैदल चलना, साइकिल चलाना और तैरना जैसी कसरतें फायदेमंद साबित होती हैं। इन सबके अलावा सबसे जरूरी यह है कि व्यक्ति तनाव और काम की अधिकता से बचें।

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Sunday 3 February 2013

गर्भावस्था के प्रारंभिक लक्षण



कुछ महिलाओं का मानना है, कि उन्‍हें स्‍वयं ही आभास हो जाता है कि वे गर्भवती है। लेकिन बहुत से दूसरे लोग जिनको सहज ज्ञान होता वह अन्य तरीको से बताते है कि कोई महिला गर्भवती है या नहीं।






गर्भावस्था के प्रारंभिक लक्षण हैं :

  • स्तनों में पीङा
  • स्वभाव में बदलाव या चिढ़चिढापन और थकावट
  • मतली और सुबह के समय कमजोरी या ढीलापन जोकि गर्भावस्था के चौथे से आठवें सप्ताह से शुरू होता है 
  • मासिक धर्म का बंद होना, योनि स्राव और श्रोणि में ऐंठन की स्थिति में बदलाव आता है।
  • सुबह के समय कमजोरी या ढीली तबियत



क्रोनिक गोनाडोट्रोपिन हार्मोन के कारण सुबह के समय आपकी तबियत ढीली पड़ सकती है। इस हार्मोन के स्तर में आमतौर पर तेजी से कमी गर्भावस्था की अवधि बढने के बाद होती है(12 से 14 सप्ताह की गर्भावस्था), और मतली आम तौर पर दूसरी तिमाही के आरंभ में ही गायब हो जाती है या आना बंद हो जाती है।


दिल्ली आधारित स्त्रीरोग विशेषज्ञ, डॉक्टर अल्का लाल के अनुसार, "महिलाएं आमतौर पर संकेतो से आसानी से पता लगा सकती है जैसे मासिक धर्म का न होना, बार बार पैशाव आना, सुबह के समय तबियत का ढीला होना, थकान, स्तनो में बदलाव, और त्वचा में परिवर्तन। यह गर्भावस्था के पता लगाने के बहुत अच्छे संकेत है।"
याद रखने की बात यह है कि इन लक्षणो मे से कोई एक भी गर्भावस्था के अलावा अन्य मामलो में कारण हो सकते है, तो वे विश्वसनीय और आसान नही है, लेकिन वे एक बहुत अच्छे संकेत है जोकि इस योग्य हो सकते है कि संदेह होने पर आप घर पर गर्भावस्था परिक्षण किट खरीद कर जांच कर सकते है या अपने स्त्रीरोग विशेषज्ञ से बात करें।

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Friday 1 February 2013

पीठ दर्द को कहो अलविदा


कई तरह के तनावों और दबावों से भरी नए दौर की भागमभाग वाली जीवनशैली के कारण लोग तमाम व्याधियों के शिकार होते देखे जा रहे हैं।

अनावश्यक भावनात्मक दबावों, कई बार गलत मुद्रा में उलटे-सीधे तरीके से उठने-बैठने या खड़े होने के कारण लोग ऐसी मुश्किलों के शिकार हो जाते है जिनकी पकड़ से छूटना कठिन होता है। इनमें से ही एक है पीठ का दर्द। पीठ का दर्द एक ऐसी व्याधि है जो अकेले नहीं आती। इसके चलते कंधों में दर्द, मांसपेशियों में लोच की कमी, वजन का घटना, गर्दन में दर्द, कमजोरी और कभी-कभी सिरदर्द की भी शिकायत हो सकती है।

पीठ के लिए योग थेरेपी

पीठ में जब हलका दर्द महसूस हो रहा हो उसी समय से अगर योगासन शुरू कर दें तो उस पर नियंत्रण कर गंभीर दिक्कतों का शिकार होने से आप स्वयं को बचा सकती है। बेहतर यह होगा कि किसी योग्य शिक्षक से सलाह कर आसनों का एक पूरा समूह चुनें और उनका नियमित अभ्यास करे। इससे पूरे शरीर में संतुलन बने रहने से रीढ़ में लोच और मजबूती दोनों बनी रहेगी। इस तरह पीठ में किसी प्रकार की व्याधि नहीं होने पाएगी।

मार्जारी आसन की विधि

1. दोनों घुटनों और दोनों हाथों को जमीन पर रखकर घुटरूं खड़ी हो जाएं।

2. हाथों को जमीन पर बिलकुल सीधा रखें। ध्यान रखें कि हाथ कंधों की सीध में हों और हथेली फर्श पर इस तरह टिकाएं कि उंगलियां आगे की तरफ फैली हों।

3. हाथों को घुटनों की सीध में रखें, बांहे और जांघें भी फर्श से एक सीध में होनी चाहिए।

4. घुटनों को एक-दूसरे से सटाकर भी रख सकती है और चाहे तो थोड़ी दूर भी। यह इस आसन की आरंभिक अवस्था है।

5. इसके बाद रीढ़ को ऊपर की तरफ खींचते हुए सांस अंदर खींचें। इसे इस स्थिति तक लाएं कि पीठ अवतल अवस्था में पूरी तरह ऊपर खिंची हुई दिखे।

6. सांस अंदर की ओर तब तक खींचती रहे जब तक कि पेट हवा से पूरी तरह भर न जाए। इस दौरान सिर का ऊपर उठाए रखें। सांस को तीन सेकंड तक भीतर रोक कर रखें।

7. इसके बाद पीठ को बीच से ऊपर उठाकर सिर नीचे झुकाएं।

8. अपनी दृष्टि नाभि पर टिकाएं।

9. सांस धीरे-धीरे बाहर छोड़े और पेट को पूरी तरह खाली कर दें और नितंबों को भी भीतर की तरफ खींचें।

10. सांस को फिर तीन सेकंड तक रोकें और सामान्य दशा में वापस आ जाएं। इस तरह इस आसन का एक चक्र पूरा होता है।

श्वसन

सांस लेने और छोड़ने की प्रक्रिया जितना भी संभव हो सके, उतना ही धीरे-धीरे करे। कोशिश यह करे कि सांस भीतर खींचने में कम से कम पांच सेकंड लगें और फिर छोड़ने में भी कम से कम इतना ही समय लगे।

कितनी बार करे

एक बार में आप पांच से दस बार तक इस आसन की पूरी प्रक्रिया को दुहरा सकती है।




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