Monday 11 March 2013

क्यों जरूरी है कैल्शियम


आजकल ज्यादातर लोगों को हड्डियों, मांसपेशियों और जोड़ों के दर्द की समस्या हो जाती है। अगर आप अपने परिवार को इससे बचाना चाहती हैं तो रोजाना के भोजन में पर्याप्त मात्रा में कैल्शियम युक्त चीजें जरूर शामिल करें। केवल शरीर ही नहीं, मस्तिष्क की सही कार्यप्रणाली के लिए भी इसका सेवन बहुत जरूरी है।


जिन पोषक तत्वों से मानव शरीर की रचना होती है, कैल्शियम उसका महत्वपूर्ण घटक है। कार्बन, हाइड्रोजन और नाइट्रोजन के बाद शरीर में कैल्शियम की मात्रा सबसे अधिक होती है। इसमें से 90 प्रतिशत कैल्शियम हड्डियों व दांतों में पाया जाता है। इसकी कुछ मात्रा हमारे रक्त में भी होती है। इसके अलावा मस्तिष्क के सेरेब्रोस्पाइनल फ्लूइड में व स्तन ग्रंथियों से स्त्रावित दूध में भी कैल्शियम होता है।

कैल्शियम के कार्य

कैल्शियम से न सिर्फ हड्डियां मजबूत होती हैं, बल्कि उच्च रक्तचाप, डायबिटीज और कैंसर के खतरों से भी बचाव होता है। यह नर्वस सिस्टम के माध्यम से हमारी मांसपेशियों को गतिशील बनाने में सहायक होता है। रक्त में निश्चित मात्रा में घुला कैल्शियम कोशिकाओं के हर पल सक्रिय रहने के लिए आवश्यक है। गर्भावस्था के दौरान गर्भस्थ शिशु की हड्डियों के विकास के लिए गर्भवती स्त्रियों को कैल्शियम युक्त पदार्थो का भरपूर सेवन करना चाहिए। डॉक्टर की सलाह पर उन्हें कैल्शियम की गोलियों का भी सेवन करना चाहिए। जब बच्चों के दांत निकलने शुरू हों तो उन्हे पर्याप्त मात्रा में दूध और उससे बनी चीजें देनी चाहिए। टीनएजर्स के समुचित शारीरिक विकास के लिए उन्हें भी अधिक कैल्शियम की जरूरत होती है।

बढ़ती उम्र में कैल्शियम

30 साल की उम्र तक हड्डियां पूरी तरह विकसित हो जाती है, लेकिन शरीर को कैल्शियम की जरूरत तब भी होती है। 40 वर्ष की उम्र के बाद स्त्रियों में मेनोपॉज की अवस्था आती है। इस समय उन्हे प्रतिदिन 1500 मिग्रा कैल्शियम की आवश्यकता होती है। इस उम्र में कैल्शियम की कमी से हड्डियां कमजोर हो जाती हैं और ऑस्टियोपोरोसिस होने का खतरा बढ़ जाता है। अत: आप अपने रोजाना के खानपान में पर्याप्त मात्रा में कैल्शियम युक्त चीजें जरूर शामिल करें। नियमित एक्सरसाइज भी आपके लिए फायदेमंद साबित होगा।

प्रमुख स्रोत

दूध और उससे बनी चीजों जैसे- दही, पनीर और चीज आदि का सेवन करें। औसतन एक गिलास दूध में 300 मिलीग्राम कैल्शियम होता है। सफेद रंग के सभी फलों और सब्जियों जैसे-केला, नारियल, शरीफा, अमरूद, गोभी और मूली आदि में पर्याप्त मात्रा में कैल्शियम पाया जाता है।

कैसे करें सेवन

हम जितना कैल्शियम भोजन के माध्यम से लेते है, उसमें से मात्र 30 प्रतिशत ही मेटाबॉल्जिम के माध्यम से हम तक पहुंच पाता है। शेष कैल्शियम उत्सर्जन की प्रक्रिया द्वारा शरीर से बाहर निकल जाता है। हमारे शरीर में कैल्शियम के अवशोषण और उसके पाचन के लिए फास्फोरस और विटामिन डी की भी आवश्यकता होती है। आम तौर पर सभी कैल्शियम युक्त खाद्य पदार्थो में फास्फोरस भी पाया जाता है। इसलिए अलग से फास्फरेरस के सेवन की जरूरत नहीं पड़ती, लेकिन हड्डियों के लिए विटमिन डी बहुत जरूरी है। इसकीप्राप्ति के लिए प्रतिदिन सूरज की रोशनी में थोड़ा वक्त जरूर बिताएं। हमारे रोजमर्रा के संतुलित और पौष्टिक भोजन से शरीर को पर्याप्त मात्रा में कैल्शियम मिल जाता है। इसलिए बिना डॉक्टर की सलाह लिए कैल्शियम की गोलियों का सेवन न करें, क्योंकि यह सेहत के लिए नुकसानदेह हो सकता है।

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Sunday 10 March 2013

जंक फूड की लत नशे जैसी ही

क्या भूख लगने पर आपकी बर्गर खाने की तीव्र इच्छा होती है ? क्या फ्रैंच फ्राईज़ का ख्याल आपको मैक डोनाल्ड तक ले जाता है ? क्या आप कठोर तौर पर यह कह सकते हैं कि आपको फास्ट फूड की लत है। आइये फास्ट फूड की लत से पीछा छुड़ाने के कुछ तरीके जानें

 जुपिटर के स्क्रिप्स रिसर्च इन्टीट्यूट, फ्लारिडा में हुए एक नये शोध के अनुसार फास्ट फूड की लत तम्बाकू या हिरोइन की लत की ही तरह होती है । यह समस्या सिर्फ युवाओं में ही नहीं बल्कि बच्चों  में भी बढ़ती जा रही है ।

सभी उम्र के बच्चों पर ऐसी लत का ध्यान देना आवश्यक है । ‘सुपरसाइज़ मी’ एक ऐसे कहानी है, जिसमें एक व्यक्ति को मैक डी के आहार की लत लग जाती है और वो सिर्फ पि़ज्जा़ और बर्गर खाकर खुश रहता है। शुगर और खाद्य पदार्थ भी दिमाग पर कुछ वैसे ही प्रभाव डालते हैं जैसे कि ड्रग्स और धीरे – धीरे इसका प्रभाव हमारी भूख पर पड़ने लगता है।

सबसे भयानक बात यह है कि ऐसी लत का पता व्यक्ति को बहुत समय बाद लगता है और तबतक व्यक्ति का वज़न कई गुना बढ़ चु‍का होता है । ध्यान देने योग्य सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि व्यक्ति को हमेशा अपने आहार पर ध्यान देना चाहिए । आर्टेमिस की हैड आहार विशेषज्ञ ज़्योती अरोड़ा के अनुसार, आप जो भी आहार लेते हैं उसे कम मात्रा में लें । ध्यान रखें कि यह बात महत्व नहीं रखती कि आप क्या खा रहे हैं, बल्कि यह बात महत्व रखती है कि आप कितना खा रहे हैं । इसके अलावा लत का एक कारण यह हो सकता है कि आप वसा की कितना मात्रा ले रहे हैं या किस मात्रा में जंक फूड का सेवन कर रहे हैं ।

लत को मानने का सबसे कठोर चरण है इसे स्वीकार करना । एक बार जब आप अपनी लत को स्वीकार कर लेंगे तो अपनी इच्छा शक्ति की मदद से इससे बचने के रास्ते आप स्वयं ही तलाश लेंगे । मैक्स हैल्थ केयर अस्पताल की मुख्य आहार विशेषज्ञ डा रितिका समद्दार का मानना है कि दृढ़ इच्छा शक्ति सर्वोच्च है और कुछ स्थितियों में परामर्श से भी मदद मिलती है। ध्यान रखें कि आपको बहुत तेज़ भूख ना लगने पाये। साइकोथेरेपिस्ट्स के अनुसार क्रेविंग ऐसी स्‍थिति जिसका असर सिर्फ 15 मिनट तक रहता है ।

भूख लगने पर पानी पीयें क्‍योंकि कभी-कभी हमारा शरीर प्यास के संकेत को भूख की स्थिति मान बैठता है। कुछ चिकित्सक क्रेविंग से बचने के नुस्खे बताते हैं। शुरूवात कुछ इस प्रकार करें, पहले दिन कोई भी जं‍क फूड ना खायें और फिर दूसरे दिन पुरस्कार के रूप में थोड़ा सा जंक फूड खायें। दोबारा दो दिन तक कोई भी जं‍क फूड ना खायें और फिर तीसरे दिन पुरस्कार के रूप में थोड़ा सा जंक फूड खायें । लगातार ऐसा तब तक करते रहें जबतक कि आप अपने आपको क्रेविंग या भूख लगने की स्थिति का सामना करने के काबिल ना बना लें ।

डा अरोड़ा के अनुसार फास्ट फूड को ना कहना आपके स्वास्‍थ्‍य के लिए अच्छा है । यह कई बातों पर निर्भर करता है, जैसे कि आप कहां पैदा हुए हैं, आपके घर पर कैसे आहार का सेवन होता है । वो बच्चे जिनके खान–पान की आदतों पर नज़र रखी जाती है, उनमें ऐसी समस्या कम होती है । 14 वर्षीय अभय (बदला हुआ नाम), जो कि साउथ दिल्ली के प्रसिद्ध स्कूल में पढ़ता है, उसका वज़न 121 किलो है और उसकी जीवनशैली कुछ ऐसी है:

सुबह वो देर से उठता है और स्कूल जाने से पहले ब्रेकफास्ट में फास्ट  फूड लेता है, कार में बैठ कर कुछ बिस्किट खाता है । स्कूल पहुंचकर कैन्टीन से दो समोसे और कोल्ड ड्रिंक पीता है । अधिकतर समय वो लंच में पिज्जा़, बर्गर और फ्राईज़ मंगाता है क्योंकि उसके अनुसार घर का खाना बोरिंग होता है । अकसर वो पेट भरा होने के कारण रात का खाना नहीं खा पाता और उसके कम्यूटर के इर्द-गिर्द या बैग में स्नैक्स भरे होते है । वो देर रात तक जागता है और भूख लगने पर स्नैक्स और कोल्ड  ड्रिंक का सेवन करता है। उसके माता और पिता दोनों ही कार्यरत हैं और रात का खाना जो कि विशेष रूप से उसके लिए बनाया जाता है, वो खाने को मना करता है । इस बच्चे को विशेष रूप से फास्ट फूड की लत लगी हुई है ।

बच्चों  के स्वास्‍थ्‍य के लिए अभिभा‍वक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं क्योंकि यह आगे जाकर बच्चों की आदत बन जाती है । 21वीं सदी के बच्चों में अमेरिका की सबसे बड़ी समस्या है, बच्चों और किशोरों में मोटापा जो कि दक्षिणी जीवनशैली में बहुत ही आम है । हमें ऐसी समस्याओं के बारे में जानकारी रखनी चाहिए।

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Friday 8 March 2013

अनशन स्वास्थ्य के लिए अच्छा या नही

अन्ना के अनशन को देखते हुए हममें से बहुत लोगों के दिमाग में ऐसे ख्याल आ रहे हैं कि अनशन का हमारे स्‍वास्‍थ्‍य पर क्‍या प्रभाव पड़ सकता है। क्या अनशन हमारे स्‍वास्‍थ्‍य के लिए अच्छा है या नहीं। गांधीजी ने भी 21 दिनों का अनशन किया था। पुराने समय में बहुत से ऋषि मुनियों के बारे में ऐसा कहा गया है कि वो महीनों तक अन्न और जल नहीं ग्रहण करते थे। सवाल यह उठता है कि आप कितनी देर तक बिना कुछ खाये-पीये आसानी से रह सकते हैं ।

चिकित्सकों का मानना है कि एक स्वस्थ व्यक्ति सिर्फ पानी के सहारे कम से कम आठ हफ्ते तक आसानी से रह सकता है । अनशन आपकी स्वास्‍थ्‍य स्थितियों पर भी बहुत हद तक निर्भर करता है।

अनशन के स्‍वास्‍थ्‍य लाभ-

  • अनशन का सबसे बड़ा फायदा है शरीर में होने वाली डीटाक्‍सिफिकेशन की प्रक्रिया, जिसमें कि शरीर से टाक्सिन निकल जाते हैं।
  • आप हल्‍का महसूस करते हैं।
  • अनशन तब असरदार हो सकता है जबकि आप पूरे हफ्ते तक इसको निभायें और अनशन के बाद फिरसे खाना खाने पर सावधानी बरतें।
  • अनशन के साथ पानी पीना बेहद ज़रूरी है, तभी आपके शरीर की संचार प्रणाली ठीक प्रकार से काम करेगी ।

अनशन के प्रतिकूल प्रभाव



  • अगर आप खाना नहीं खाते हैं, तो ठंडा और गर्म दोनों ही  तरह का वातावरण आपके लिए हानिकारक होता है ।
  • खाना ना खाने से शरीर में पानी की भी कमी हो जाती है क्योंकि आप आहार के दूसरे स्रोतों से पानी की आपूर्ति नहीं कर पाते हैं।
  • खाना ना खाने से शरीर में कमजोरी आने लगती है ।
  • ज्यादा समय तक खाना ना खाने से व्यक्ति की सोचने समझने की क्षमता भी प्रभावित होती है ।
  • व्याक्ति की रोग प्रतिरोधी क्षमता भी कमजोर हो जाती है।
  • ज्यादा समय तक भूखे रहने से हृदय गति भी प्रभावित हो सकती है ।
  • तीन दिन तक अगर आपने कुछ नहीं खाया है, तो आपका पेट और छोटी आंत गैस्ट्रिक जूस बनाना बंद कर देंगे ।
  • 20 दिन से ज्यादा दिनों तक खाना ना खाने से अल्सर होने की संभावना बढ़ जाती है।


हमारे लिए खाना जितना ज़रूरी है, पानी भी उतना ही ज़रूरी है आइये जाने ज्यादा समय तक पानी ना पीने से किस प्रकार की समस्याएं हो सकती हैं। पानी के बिना रहना, खाने के बिना रहने से कहीं ज्यादा मुश्किल है ।

  • गर्मियों में पानी की कमी से एक घंटे के अंदर ही डिहाइड्रेशन होने की संभावना बढ़ जाती है।
  • छोटा बच्‍चा या बीमार व्यक्ति की कुछ  ही घंटों में जान भी जा सकती है।
  • हमारे शरीर से पसीना, यूरीन के रूप में और यहां तक कि सांस लेने में भी पानी का प्रयोग होता है, इसलिए पानी हमारे लिए बेहद आवश्यक है। लंबे समय तक पानी ना पीने से हीट स्ट्रोक तक हो सकता है।
  • लंबे समय तक पानी की कमी होने से मुंह में सैलाइवा की कमी हो जाती है और मुंह भी सूखने लगता है।
  • यूरीन के रंग और मात्रा में बदलावा होने लगता है।
  • हृदय गति का बढ़ जाना ।
  • थकान, चिड़चिड़ाहट और उल्टियां और डायरिया भी हो सकता है ।

सामान्य स्वास्‍थ्‍य वाला व्यक्ति बिना पानी के 3 से 5 दिनों तक रह सकता है ।

Thursday 7 March 2013

खाते-खाते वजन घटाओ

वजन घटाने के लिए खाना छोड़ना या कम करने की सलाह पूरी दुनिया में दी जाती है, लेकिन कुछ चीजें ऐसी भी हैं जिन्हें खाकर आप वजन घटा सकते हैं। ऐसी ही कुछ चीजों का जिक्र हम यहां कर रहे हैं।

खाने से वजन बढ़ता है, ये तो दुनिया जानती है, लेकिन कुछ ऐसे भोजन भी हैं जिनके सेवन से आपका वजन कम होता है। वजन पर नियंत्रण रखना स्वास्थ्य के लिहाज से बेहद आवश्यक है और क्विक वेट लॉस आजकल एक ट्रेंड-सा बन गया है। हालांकि इसके कई तरीके हैं लेकिन विभिन्न रिसर्चो की मानें तो सही किस्म का भोजन वजन कम करने में सबसे ज्यादा सहायक होता है। कुछ ऐसी चीजें हैं जिन्हें अपनी डाइट में शामिल करने से वजन को नियंत्रित रखा जा सकता है। ऐसे ही कुछ भोज्य पदार्थो का यहां जिक्र किया जा रहा है।

बींस- बींस को वेट लॉस के लिहाज से सबसे अच्छा माना जाता है। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की एक रिसर्च के अनुसार बींस में ऐसे तत्व होते हैं जो कॉलेसिस्टॉकिनिन नाम के डाइजेस्टिव हार्मोन को लगभग दो गुना बढ़ाने में मदद करते हैं। कुछ अध्ययनों के अनुसार बींस ब्लड शुगर के स्तर को मेंटेन करने में मदद करता है ताकि अगर आपको लंबे समय तक भूखा रहना पड़े तो आपके लिए नुकसानदेह न हो। बींस को हाई फाइबर डाइट माना जाता है जो कॉलेस्ट्राल को कम करने में भी मदद करता है।

अंडे- अंडे प्रोटीन का खजाना होते हैं। सुबह नाश्ते में अंडे खाना सेहत के लिहाज से बहुत अच्छा होता है। एक रिसर्च में पाया गया कि वे स्त्रियां जो नाश्ते में स्क्रैम्बल्ड एग्ज के साथ दो स्लाइस टोस्ट और कम कैलरी वाला फ्रूट स्प्रेड लेती हैं, उन्हें आम नाश्ता खाने वाली स्त्रियों के मुकाबले कम भूख लगती है। कम भूख लगने से जाहिर है इंसान कम कैलरी कंज्यूम करेगा।

सैलेड- क्या आपको लंच या डिनर के दौरान खुद को स्टफ कर लेने की आदत है? यदि हां, तो अपनी मील की शुरुआत सैलेड से करें। ध्यान रखें कि यह सैलेड क्रीमी ड्रेसिंग के बगैर होना चाहिए। पेन स्टेट यूनिवर्सिटी में 42 स्त्रियों पर हुए एक अध्ययन में देखा गया कि जिन्होंने मील के पहले एक बड़ी प्लेट लो कैलरी सैलेड खाया, वे बाद में लगभग 12 प्रतिशत कम पास्ता ही खा सकीं। अध्ययनकर्ताओं के अनुसार इसकी वजह रहा सैलेड। अमेरिकन डायटिक एसोसिएशन के एक जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट की मानें तो सैलेड में विटामिन सी और ई के अलावा फॉलिक एसिड, लाइकोपीन और कैरोटेनॉयड्स आदि पोषक तत्व मौजूद हैं जो प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं।

ग्रीन टी- ग्रीन टी उन सभी लोगों के लिए बेहतरीन पेय है जो वजन कम करने की इच्छा रखते हैं। ग्रीन टी में कैटेशिंस नाम के एंटीऑक्सिडेंट्स मौजूद होते हैं जो फैट बर्न करने और मेटाबॉलिज्म को बढ़ाने में मदद करते हैं। विभिन्न शोधों से पता चला है कि ग्रीन टी बॉडी मास इंडेक्स को घटाने और हानिकारक एलडीएल कॉलेस्ट्रॉल को कम करने में भी मदद करती है।

नाशपाती- नाशपाती फाइबर का खजाना होती है। यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन के अनुसार लगभग छह ग्राम की एक नाशपाती आपकी भूख को संतुष्ट करने के लिए पर्याप्त होती है। संस्था के अनुसार भूख मिटाने के लिए सेब नाशपाती के बाद सबसे अच्छा स्रोत है। दोनों ही फलों में पेक्टिन फाइबर होता है जो ब्लड शुगर के स्तर को कम करता है। असमय भूख लगने पर हाई कैलरी स्नैक्स लेने के बजाय नाशपाती खाएं, आपके शरीर में गैरजरूरी कैलरी पहुंचने से बचेगी।

सूप- एक कप चिकन सूप और एक नॉर्मल साइज चिकन पीस से लगभग एक जैसी ही भूख मिटती है। शोधकर्ताओं की मानें तो चिकन सूप भूख कम करने में सहायक होता है।

लीन बीफ- अगर आप अपने शरीर के एक्स्ट्रा पाउंड्स को कम करने की चाह रखते हैं तो लीन बीफ को अपने डिनर में शामिल कर लीजिए। अगर आप रोजाना 1700 कैलरी की डाइट लेते हैं तो 9-10 आउंस लीन बीफ आपकी डाइट का एक अहम हिस्सा बन सकती है। बीफ खाने वालों को भूख भी कम लगती है, इसलिए भी इसे वेट लॉस फूड की कैटगरी में शामिल किया जाता है।

ऑलिव ऑयल- बढ़ती उम्र में फैट कम करना मुश्किल होता है। ऐसे में ऑलिव ऑयल आपके लिए मददगार साबित हो सकता है। ऑलिव ऑयल मोनोअनसैचुरेटेड फैट्स से बना होता है जो कैलरी बर्न करने में सहायक होता है। ऑलिव ऑयल को सॉते करने या सैलेड ड्रेसिंग के तौर पर बखूबी प्रयोग किया जा सकता है। ऑस्ट्रेलिया में 57 से 73 वर्ष की स्त्रियों पर किया गया, एक अध्ययन यह साबित करता है कि ऑलिव ऑयल मेटाबॉलिज्म बढ़ाने में मदद करता है। इस अध्ययन में शामिल स्त्रियों को नाश्ते में स्किम्ड मिल्क और ओटमील में ऑलिव ऑयल डालकर दिया गया था।

दालचीनी- भोजन के बाद मीठा मोटापे का बड़ा कारण होता है। माइक्रोवेव किए हुए ओटमील या होल-ग्रेन टोस्ट पर दालचीनी पाउडर छिड़क कर खाएं, आपको इस 'क्रेविंग' से भी छुटकारा मिलेगा और अनचाही कैलरीज से भी। यूएस डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार थोड़ी-सी दालचीनी खाकर भोजन के बाद मीठे की क्रेविंग से आसानी से छुटकारा पाया जा सकता है। दालचीनी सेहत के लिहाज से भी बहुत अच्छी है। एक-चौथाई छोटा चम्मच दालचीनी का पाउडर का रोजाना सेवन टाइप 2 डायबिटीज के मरीजों में ब्लड शुगर और कॉलेस्ट्रॉल को कम करने में सहायक होता है।

विनेगर- विनेगर के सेवन से लंबे समय तक भूख नहीं लगती। एक स्वीडिश अध्ययन के अनुसार प्लेन ब्रेड खाने वालों के मुकाबले ब्रेड स्लाइस को विनेगर में डुबो कर खाने वालों को भूख कम लगती है। विनेगर में मौजूद एसिटिक एसिड से पाचन में समय लगाता है, जिससे भूख देर से लगती है।

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Wednesday 6 March 2013

किडनी को बचाएं पथरी से

डेडलाइंस का दबाव और घंटों कुर्सी पर बैठे रहना, लंबी मीटिंग्स के दौरान यूरिनेशन कंट्रोल, अनियमित खानपान, जंक फूड.., आज की पीढ़ी इसी जीवनशैली की अभ्यस्त है। इस कार्य-संस्कृति की कीमत चुका रही है सेहत। यह जीवनशैली डायबिटीज व हृदय-रोगों के अलावा किडनी स्टोन को भी जन्म दे रही है। गुर्दे में पथरी के दो बड़े कारण हैं। पहला पानी कम पीना और दूसरा मूत्रत्याग रोकना।

क्या है किडनी स्टोन

नई दिल्ली के वसंत कुंज स्थित फोर्टिस अस्पताल के वरिष्ठ सलाहकार यूरोलॉजिस्ट डॉ. अंशुमान अग्रवाल कहते हैं, 'यूरिन में मौजूद सॉल्ट व मिनरल्स से मिलकर बनती है पथरी। पथरी धूल-कणों जितनी छोटी भी हो सकती है और गोल्फ बॉल जितनी बड़ी भी। ये सभी तत्व यूरिनेशन के जरिये बाहर निकलते हैं। गुर्दे की पथरी आजकल आम समस्या बन चुकी है। हर वर्ष लगभग तीन मिलियन लोग इन समस्याओं के चलते अस्पताल जाते हैं और इनमें से एक चौथाई से अधिक इमरजेंसी में भर्ती होते हैं। पुरुषों में ये मामले अधिक हैं।'

दिल्ली स्थित हार्ट केयर फाउंडेशन के अध्यक्ष डॉ. के.के. अग्रवाल कहते हैं, 'किडनी का दिल से भी सीधा संबंध है। यह स्वस्थ है तो दिल भी स्वस्थ रहेगा। साल में कम से कम एक बार इसकी जांच करानी चाहिए। गर्भावस्था के दौरान अल्ट्रासाउंड जांच से भी किडनी संबंधी रोगों के बारे में पता चल जाता है।'

किडनी स्टोन क्यों होता है? हम रोज जो भी भोजन करते हैं, उनमें से पाचन क्रिया के बाद भी कैल्शियम फॉस्फेट जैसे कुछ तत्व बचे रहते हैं, जो गुर्दे में एकत्र होते हैं। इसके सूक्ष्म कण तो मूत्र के जरिये बाहर निकल जाते हैं, लेकिन कुछ कण नहीं निकल पाते और मिलकर कंकड़ या पेबल जैसे बन जाते हैं। ये कण मूत्र नली में पहुंचकर मूत्र को बाधित करने लगते हैं, इससे दर्द होता है। इलाज में देरी होने पर कई बार मूत्र के साथ रक्त आने लगता है।

प्रमुख कारण

डॉ. दीपिका नितेश शर्मा कहती हैं पथरी के ये कारण हो सकते हैं-

1. पानी कम पीना और यूरिन देर तक रोकना

2. अनियमित दिनचर्या और खानपान

3. यूटीआई इन्फेक्शन भी इसका एक कारण हो सकता है

4. यह रोग आनुवंशिक भी हो सकता है

5. कुछ लोगों को कैल्शियम कार्बोनेट माफिक नहीं आता, इससे भी पथरी बनने लगती है।

उपचार

नोएडा स्थित योगा एंड नेचर केयर सेंटर के

डॉ. आर.एम. गुप्ता के अनुसार, 'रक्त में किसी भी अनावश्यक तत्व को मूत्र के माध्यम से बाहर निकालने की जिम्मेदारी किडनी की होती है। नेचुरोपैथी में स्टीम बाथ, हाइड्रोपैथी व मड थेरेपी के जरिये किडनी स्टोन को गलाने की कोशिश की जाती है।

डॉ. दीपिका कहती हैं, पथरी यदि छोटी और प्राथमिक चरण में हैं तो अधिक पानी पीने से ये मूत्र के साथ बाहर निकल सकती है। शुरुआती दौर में होमयोपैथी व आयुर्वेद से भी इसका इलाज संभव है। स्टोन बड़े होने के बाद सर्जरी से ही इसका उपचार किया जा सकता है।

क्या न करें

गुर्दे की पथरी होने पर दूध या दुग्ध उत्पादों का सेवन कम करें। अचार, चटनी, मांस, मछली, चिकन, जंक फूड का सेवन कम करें। हरी सब्जियां अच्छी तरह धोकर ही इस्तेमाल करें।

बच्चों को घेर रही है पथरी

किडनी स्टोन छोटे बच्चों को भी परेशान कर रहा है। हालांकि यह आम समस्या नहीं है। डॉ. अंशुमान अग्रवाल के अनुसार, उनके पास एक चार महीने के बच्चे का केस आया, जिसकी किडनी के मुंह पर जन्म से ही रुकावट थी। बच्चों में पथरी के कुछ कारण हैं। जैसे अधिक नमक, ओबेसिटी और एंटीबायोटिक्स का अधिक सेवन। भारत में अभी ऐसे कोई आंकड़े नहीं हैं कि बच्चों को यह रोग क्यों हो रहा है। लेकिन खानपान की गड़बड़ी इसका एक बड़ा कारण है। बच्चों में यह रोग कभी-कभी आनुवंशिक भी हो सकता है। विटमिन व प्रोटीन की कमी भी इसका कारण हो सकता है। महानगरों में वर्ष भर में अलग-अलग अस्पतालों में बच्चों के ऐसे सात से आठ मामले तक आ जाते हैं। इससे बचाव के लिए बच्चों को दिन भर में कम से कम 6-7 गिलास पानी अवश्य पिलाएं। अगर उन्हें किडनी स्टोन की समस्या है तो उन्हें नमकीन पेय पदार्र्थो का सेवन कम कराएं। चिकित्सक की सलाह पर बच्चों को कैल्शियम अवश्य दें, क्योंकि खाने में मौजूद कैल्शियम पथरी बनाने वाले ऑक्सेलेट से जुड़कर पथरी को बनने से रोकता है। बच्चों को जंक फूड कम से कम दें और ओबेसिटी से बचाएं।

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Tuesday 5 March 2013

मेहनत से ही मिटेगा मोटापा

शरीर को स्वस्थ रखने में मोटापा एक बड़ी बाधा है। मोटापे के कारण शरीर कई बीमारियों का शिकार बन सकता है, लेकिन कुछ सजगताओं पर अमल कर मोटापे से छुटकारा पाया जा सकता है..

दुनिया भर में मोटापे के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। हाल मे हुए एक अध्ययन के अनुसार शहरी क्षेत्रों में रहने वाले 16 फीसदी भारतीय मोटापे से ग्रस्त हैं। वहीं 39 प्रतिशत भारतीय बॉडी मास इंडेक्स के आकलन के अनुसार मोटापे से ग्रस्त हैं। बीएमआई टेस्ट मोटापे को मापने का एक व्यावहारिक व सटीक तरीका है और इसके जरिये मोटापे और इससे सबधित रोगों का पता लगाया जाता है। आम तौर पर 20 से 25 बीएमआई वाले लोगों को मोटापे से ग्रस्त नहीं माना जाता है। वहीं 25 से अधिक बीएमआई वाले लोगों को मोटापे से ग्रस्त व्यक्तियों की श्रेणी में रखा जाता है।

कमर के घेरे की माप

मोटापे के आकलन की दूसरी गणना कमर का घेरा या इसकी माप से सबधित है। महिलाओं में कमर की माप अगर 80 सेमी. और पुरुषों में 90 सेमी. से अधिक है, तो ऐसे लोगों में मेटाबॉलिक सिड्रोम या फिर मोटापे से ग्रस्त होने की आशकाएं बढ़ जाती हैं। इस स्थिति में मधुमेह या डाइबिटीज, हाई ब्लडप्रेशर और दिल का दौरा पड़ने का जोखिम बढ़ जाता है।

मोटापा और रोग

वस्तुत: मोटापा कई रोगों का कारण है। मोटापे के कारण टाइप -2 डाइबिटीज, हाई ब्लडप्रेशर, हृदय धमनी रोग व हार्ट अटैक और स्ट्रोक होने का खतरा बढ़ जाता है।

खान-पान की आदतों में बदलाव

असल में लोगों में मोटापे के बढ़ने के लिए कई कारण उत्तरदायी हैं। सामाजिक व आर्थिक कारण और पश्चिमी जीवन-शैली पर अंधानुकरण अमल करने से लोगों की खान-पान की आदतों में बुनियादी बदलाव हुआ है। डिब्बाबद या पैकेज्ड खाद्य पदार्र्थो, खाना बनाने में तेल का अधिक इस्तेमाल, जंक फूड्स का बढ़ता चलन और शारीरिक परिश्रम के अभाव से मोटापे का प्रकोप समाज के विभिन्न वर्र्गो में बढ़ता जा रहा है।

वजन बढ़ने का पहला लक्षण

मोटापे से ग्रस्त होने का पहला लक्षण उच्च रक्तचाप और हाई कोलेस्ट्रॉल से ग्रस्त होना है। अगर आप व्यायाम व शारीरिक गतिविधियों से दूर रहते हैं, तिस पर धूम्रपान भी करते हैं। यह स्थिति सेहत के लिए खतरे की घटी है। गौरतलब है कि जो लोग हार्ट अटैक और स्ट्रोक की पीड़ा झेल चुके हैं, उनमें से आधे लोगों को पूर्व में इन रोगों के कोई लक्षण प्रकट नहीं हुए थे। इसलिए हार्ट अटैक और स्ट्रोक से सबधित जोखिमों को पहचानना जरूरी है, ताकि इन रोगों से होने वाली मौतों को कम किया जा सके।

जीवन-शैली में बदलाव

जीवन-शैली में सकारात्मक बदलावों जैसे नियमित व्यायाम करने और खान-पान में जंकफूड्स व चिकनाई युक्त आहार से परहेज करने से मोटापे और इससे होने वाले रोगों पर अंकुश लगाया जा सकता है। अगर इन सकारात्मक परिवर्तनों के बावजूद ब्लडप्रेशर या कोलेस्ट्रॉल के बढ़ने की समस्या नियत्रित नहीं हो रही है, तो फिर विशेषज्ञ डॉक्टर के परामर्श से रक्त को पतला करने वाली दवाएं दी जाती हैं।

सकारात्मक सोच का महत्व

बहरहाल आप बच्चे हों या वयस्क, पुरुष हो या महिला आपको प्रतिदिन नियमित रूप से व्यायाम करना चाहिए। खान-पान में हरी सब्जियों और फलों को वरीयता दें। इसके अलावा महत्वपूर्ण बात जिंदगी के प्रति सकारात्मक-आशावादी सोच रखने की

है, क्योंकि नकारात्मक सोच तनाव को पैदा करती है और तनाव दिल की सेहत के अलावा आपके सपूर्ण स्वास्थ्य का शत्रु है।

बच्चों में मोटापा

बच्चों में मोटापे का बढ़ना भी इन दिनों गभीर समस्या बन चुका है। इस समस्या के समाधान के लिए अभिभावकों को बच्चों में खान-पान की स्वास्थ्यकर आदतें डालनी चाहिए। बच्चों को गोल-मटोल नहींबनाना चाहिए। उनके टेलीविजन देखने के घटों को सीमित करें और उन्हें व्यायाम करने के लिए प्रेरित करें। साथ ही जंक फूड्स से बच्चों को दूर करने के लिए प्रेरित करें।

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Monday 4 March 2013

पोलियो के कारण एवं लक्षण

पोलियो एक संक्रमण है जो जंगली पोलियो वायरस के कारण होता है। पोलियो वायरस 3 प्रकार के होते हैं जो किसी आदमी में संक्रमण का कारण बनते हैं। वे तीनो हैं: प्रकार 1, 2 और 3। इसका संक्रमण एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को फेको -मौखिक मार्ग के द्वारा फैलता है। ज्यादातर लोग (लगभग 90% लोग) जब अपने मल बाहर निष्काषित करते हैं तो उनके मल वायरस से संक्रमित रहते हैं लेकिन वे व्यक्ति खुद बीमार नहीं रहते हैं। जब इसका संक्रमण होता है तो 5-10% लोगों में इसके लक्षण उभरते हैं। अधिकांश रोगी सड़न रोकनेवाला मैनिंजाइटिस, हल्के बुखार, गले में ख़राश, पेट दर्द और उल्टी से पीड़ित होते हैं। संक्रमित लोगों में पोलियो के कारण लकवा कम से कम 1% में होता

पोलियो बहुत ही संक्रामक रोग है जो कि पोलियो विषाणु से छोटे बच्‍चों मे होता है। जिस अंग में यह बीमारी होती है वह काम करना बंद कर देता है। यह एक लाइलाज बीमारी है।



पोलियो की गंभीरता इसके लक्षणों पर आधारित रहती  है:
स्पर्शोन्मुख  : ज्यादातर लोग (लगभग  (90% लोग , जो पोलियो वायरस से संक्रमित रहते हैं वे  स्पर्शोन्मुख या बीमार नहीं रहते।   अध्ययन के अनुसार स्पर्शोन्मुख बीमारी और लकवे की बीमारी के बीच का अनुपात  50-1000:1 होता है (सामान्य 200:1 होता है)

मामूली, गैर विशिष्ट: लगभग 4% से 8% लोगों को  मामूली या गैर विशिष्ट बीमारी होती है। इसके  लक्षण अन्य वायरल बीमारियों से अप्रभेद्य हो सकते हैं







 जिनका वर्गीकरण निम्न  रूप में किया जा सकता है:

  •      ऊपरी श्वास पथ में संक्रमण: इस प्रकार के मामले में रोगी के गले में ख़राश और बुखार हो सकता है।
  •     गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल संक्रमण :  इस समस्या में  मिचली, उल्टी, पेट दर्द और कभी कभी  कब्ज या दस्त के लक्षण दिख सकते हैं।
  •     फ्लू जैसी बीमारी हो सकती है।

निम्न प्रकार के रोगी आमतौर पर एक सप्ताह में ठीक हो जाते हैं आर ऐसे लोगों का  केंद्रीय तंत्रिका तंत्र प्रभावित या संक्रमित होने से बच जाता है।


एसेप्टिक मेनिन्गितिस जो लकवाग्रस्त नहीं हैं: : लगभग  1 से 2% रोगियों बिना लकवा के एसेप्टिक मेनिन्गितिस से ग्रस्त होते हैं।  मरीज को शुरू में गैर विशिष्ट प्रोड्रोम हो सकता है उसके बाद  गर्दन, पीठ या पैरों में जकड़न हो सकता है। ये सब  लक्षण 2 से 10 दिनों तक रह सकते हैं उसके बाद मरीज को पूरी तरह आराम मिल जाता है।

झूलता हुआ पक्षाघात:  पोलियो संक्रमण के रोगियों में से सिर्फ  <1% हीं फ्लेसीड पक्षाघात के शिकार होते हैं।  शुरुआत में  मरीज को गैर विशिष्ट प्रोड्रोमल लक्षण हो सकते हैं जिनके बाद पक्षाघात के लक्षण उभरने लगते हैं।  पक्षाघात आम तौर पर 2 से अधिक 3 दिनों तक प्रगति करता जाता है और एक बार बुखार नियंत्रित हो जाने पर वह स्थिर हो जाता है। पक्षाघात पोलियो के साथ रोगियों में;
पारालाईटिक   पोलिओ के लगभग  50% रोगी पूरी तरह से ठीक हो सकते हैं और फिर उनमें किसी भी तरह का अवशिष्ट लकवा का अंश नहीं रह जाता।
लगभग 25% रोगियों में  हल्के रूप का स्थायी पक्षाघात और विकलांगता हो सकता है।
और लगभग 25% रोगियों को गंभीर रूप से स्थायी विकलांगता और  पक्षाघात हो सकता है।

झोले के मारे पोलियो से ग्रस्त बच्चों की मृत्यु  की दर 2% से 5% के बीच में रहती है। वयस्कों में मृत्यु दर बहुत अधिक रहती  है जो 15% से  30% तक जा सकती है


भारतीय बोझ

ज्यादा दिन पहले की बात नहीं है, 1998 को हीं ले लीजिये; उस समय तक दुनिया भर में 125 से भी ज्यादा देश पोलियो के लिए स्थानिकमारी वाले देश थे यानि वहां पोलिओ के मरीज पाए जाते थे।  इस अवधि में 1000 से भी अधिक बच्चे रोजाना पक्षाघात के शिकार होते रहते थे।  लेकिन उसके बाद व्यापक रूप से पोलियो उन्मूलन का कार्य चलता रहा जिसकी वजह से लगभग 100 से भी अधिक देशों में पोलिओ के संचरण को बाधित कर दिया गया यानि कि इसके फैलने पर नियंत्रण पा लिया गया।   2004 के मध्य से केवल छह देशों में हीं जंगली पोलिओ रह गया। वे छह देश हैं:  नाइजीरिया, पाकिस्तान, भारत, नाइजर, अफगानिस्तान और मिस्र।

हालांकि भारत से पोलियो उन्मूलन के कई उपाय किये गए हैं फिर भी यह कई जगह विराजमान है। भारत में पोलियो के ज्यादातर मामले उत्तर प्रदेश और बिहार में पाए जाते हैं।
अक्टूबर 2009  तक उत्तर प्रदेश और बिहार से पोलिओ के 464 मामले प्रकाश में आये थे।  उत्तर प्रदेश के 80% मामले पश्चिमी भाग के 10 जिलों पाए गए थे और बिहार के कोसी नदी के पास वाले क्षेत्रों में से ( 6 जिलों में से) 85% मामले पाए गए थे।
वर्तमान में  भारत में पोलियो के सबसे ज्यादा  कारण टाइप 1 और टाइप 3 वायरस के कारण होते हैं।  । 2009 में, पोलियो के ज्यादातर मामले (66 प्रतिशत पोलिओ के मामले )  दो साल से कम उम्र के बच्चों में पाए गए।

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Sunday 3 March 2013

फल-सब्जियां बचाएंगी कैंसर से


रविशंकर तिवारी/एसएनबी नई दिल्ली। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान पूसा ने कुछ रोग प्रतिरोधक शाक-सब्जियां विकसित की हैं। इन सब्जियों के सेवन से कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी होने की आशंका कम होती है। साथ ही यदि बीमारी हो गई है तो उससे लड़ने की क्षमता भी इनमें है। दो वर्ष पूर्व गोभी और गाजर की इन खास किस्म को परीक्षण के बाद अब किसानों को खेती के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। उत्तर भारत के मैदानी व पहाड़ी इलाकों में बेहतर खेती की उम्मीद जताई जा रही है। रंगीन शाक-सब्जियां सेहत के लिए फायदेमंद होती हैं। इनकी गुणवत्ता को और बेहतर बनाने के लिए पूसा के कृषि वैज्ञानिकों ने गाजर व गोभी की कुछ नई प्रजातियां विकसित की हैं, जो कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी को रोकने में मददगार साबित हो सकती हैं।

पूसा ने हाल ही में गाजर की चार वेरायटी, पूसा असीता, पूसा रुधिरा, पूसा यमदागिनी और पूसा नवज्योति विकसित की है, जिनमें एंटी कैंसर ड्रग्स तत्व की बहुलता है। इसके अलावा गोभी की कुछ प्रजातियां जैसे पूसा ब्रोकली केटीएस-1, पूसा शरद, पूसा सुक्ति, पूसा स्नोबॉल के-1 व पूसा स्नोबॉल केटी-25 है। कैंसर प्रतिरोधक इन सब्जियों की खेती उत्तर भारत के किसानों ने शुरू कर दिया है। औषधीय उपयोगिता को देखते हुए कुछ लोग किचन गार्डन में भी गाजर व गोभी उगा रहे हैं। वि बाजार में भी इसकी मांग हैं। शाक-सब्जी विभाग के अध्यक्ष प्रो. प्रीतम कालिया ने बताया कि लाल, नारंगी और काले रंग की गाजर को विकसित किया गया है।

काले रंग की गाजर (पूसा असीता) में प्रचुर मात्रा में एंथासाइनीन पाया जाता है, जो शरीर में कोलेस्ट्राल को कम करता है। 100 ग्राम गाजर में 520 मिलीग्राम एंथासाइनीन की मात्रा है। पूसा यामदागिनी और पूसा नवज्योति का रंग नारंगी है, जिसमें बीटा कारोटिन और लाइकोपीन नामक औषधीय तत्व पाए जाते हैं, जो आंख की रोशनी के लिए फायदेमंद होता है। इस गाजर का लगातार सेवन करने वाले को लाइकोपीन नामक तत्व कैंसर से दूर रखता है। उन्होंने बताया कि क्रीम कलर वाले गाजर को विकसित करने के लिए काम चल रहा है। इस गाजर में ल्यूटिन की मात्रा सर्वाधिक होगी, जो एंटी कैंसर के लिए कारगर साबित होगी।

पूसा ने फूल गोभी व बंद गोभी की कुछ प्रजातियां विकसित की हैं, जिसमें ग्लूकोसाइलेट्स नामक तत्व पाए जाते हैं। पकाने के बाद सल्फरोफेन व इंडोथिन कार्बिनोल नामक तत्व की अधिकता हो जाती है। गोभी की इन किस्मों को सर्दी व गर्मी में भी पैदा किया जा सकता है। पूसा ब्रोकली सर्वाइकल कैंसर, फेफड़े का कैंसर, पेट का कैंसर और गले के कैंसर को होने से रोकता है। इसमें कैंसर से लड़ने की क्षमता होती है। पूसा चौलाई (लाल पत्तेदार शाक) और पूसा किरण (हरे पत्तेदार) में भी कैंसर प्रतिरोधक क्षमता है।

पूसा ने विकसित की कैंसर प्रतिरोधक शाक-सब्जियां पर विशेष

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Tuesday 12 February 2013

स्वाइन फ्लू: सजगता से संभव है समाधान

उत्तर भारत के कई राज्यों में इन दिनों स्वाइन फ्लू का प्रकोप जारी है। अगर कुछ सजगताओं पर अमल किया जाए, तो इस रोग से बचा जा सकता है। समय रहते समुचित इलाज कराने से इस रोग को दुरुस्त किया जा सकता है..

स्वाइन फ्लू एक सक्रामक सास सबधी रोग है। यह रोग एच1एन1 वाइरस से होता है। यह वाइरस सक्रमित व्यक्ति के छींकने या खासते वक्त निकलने वाली दूषित सूक्ष्म बूंदों के साथ सास के जरिये शरीर में प्रवेश कर जाता है।

लक्षण

-स्वाइन फ्लू के लक्षण साधारण फ्लू के लक्षणों से मिलते-जुलते हैं।

-बुखार आना, खासी और गले में खराश।

-नाक का बहना।

-शरीर में दर्द,सिर दर्द, ठंड लगना और थकान महसूस करना।

-इसके अतिरिक्त मौसमी फ्लू की तुलना में स्वाइन फ्लू का हमला दस्त और उल्टी सरीखी गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल समस्याएं भी पैदा कर सकता है।


इन बातों पर दें ध्यान

दमा, मधुमेह और हृदय रोगों से ग्रस्त लोगों को अस्पताल में भर्ती करने की जरूरत कहीं ज्यादा होती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि स्वाइन फ्लू के कारण उनके रोग की स्थिति और भी गभीर हो सकती है।

डॉक्टरों के लिये सबसे अधिक चिता का विषय गर्भवती महिलाएं हैं। जब उनके गर्भ में पल रहा शिशु बढ़ता है, तब उनके फेफड़ों की क्षमता कम हो जाती है। इस कारण जब उन पर स्वाइन फ्लू का हमला होता है तो उन्हें सास लेने में दिक्कत महसूस होती है। यही नहीं,गर्भवती महिलाओं में वाइरस से सबधित बीमारियों के होने की आशकाएं कहीं अधिक बढ़ जाती हैं।

बच्चों में तत्रिका तत्र से सबधित जटिलताएं जैसे बेहोशी, चिड़चिड़ापन या याददाश्त में कमी की समस्याएं पैदा हो सकती हैं, जबकि वयस्कों में अचानक चक्कर आना या भ्रम उत्पन्न होने जैसी समस्याएं पैदा हो सकती हैं।

क्या करें तब, जब हो कोई बीमार

-जब परिवार का कोई सदस्य स्वाइन फ्लू से ग्रस्त हो जाता है, तो उसे अनिवार्य तौर पर घर के एक कमरे में अन्य लोगों से अलग रखा जाना चाहिए।

-घर के सभी लोगों को नियमित तौर पर अच्छी तरह से हाथ धोने चाहिए।

-इसके अलावा रोगी की सेवा करने वालों को हाथ धोने के मामले में खास सावधानी बरतनी चाहिए। उन्हें मुंह पर पूरी तरह से टाइट सर्जिकल मास्क लगाना चाहिए। सेवा करनेवाले व्यक्ति को रोगी के कपड़ों को धोने में खास सावधानी बरतनी चाहिए और उन्हें अपने शरीर से नहीं सटाना चाहिए।

-घर के फर्श को कीटनाशकों से नियमित रूप से साफ किया जाना चाहिए।

बचाव

सक्रमण फैलने से रोकने के लिये आपको छींकते या खासते समय अपने नाक और मुंह को टिश्यू पेपर या रूमाल से ढक लेना चाहिये। इस्तेमाल किये गये टिश्यू पेपर को फेंक देना चाहिए। आख,कान नाक और मुंह को छूने से बचना चाहिये ताकि दूषित चीजों से सक्रमण नहीं हो। स्वाइन फ्लू से ग्रस्त जिन लोगों की स्थिति गभीर नहीं है,उन्हें घर में रहना चाहिए। इस रोग से बचाव के लिए वैक्सीन भी उपलब्ध है, जिसे डॉक्टर के परामर्श से ही लगवाएं।

समुचित इलाज कराएं

कानपुर के वरिष्ठ सास रोग विशेषज्ञ डॉ. ए.के.सिह के अनुसार इस रोग की प्रमुख दवा टैमी फ्लू है। इसका इस्तेमाल डॉक्टर के परामर्श के बगैर नहींकरना चाहिए। कभी-कभी स्वाइन फ्लू के रोगी के निकट सपर्क में आने वाले लोगों पर भी इस दवा का इस्तेमाल किया जाता है।

डॉ.सिह की राय है कि स्वाइन फ्लू के लक्षणों के आधार पर यह बताना अत्यत कठिन है कि कि यह साधारण इंफ्लूएंजा है या फिर स्वाइन फ्लू। सिर्फ जाच के बाद ही यह निश्चित किया जा सकता है कि अमुक व्यक्ति स्वाइन फ्लू से ग्रस्त है। उनके अनुसार बुखार उतारने के लिए साधारण पैरासीटामॉल का प्रयोग किया जाना चाहिए। पेनकिलर्स और स्टेरायड्स दवाओं का इस्तेमाल न करें।

जाच: 'थ्रोट सिक्रीशन' की जाच से इस रोग के वाइरस एच1एन1 का पता चलता है।

इसलिए कहते हैं स्वाइन फ्लू

अंग्रेजी के स्वाइन शब्द का अर्थ सुअर होता है। शुरुआत में सुअरों में इस वाइरस के पाए जाने के कारण इसे स्वाइन फ्लू कहा जाने लगा। अनेक कारणों से कालातर में इस रोग का सक्रमण मनुष्यों में हुआ। अब यह रोग स्वाइन फ्लू से ग्रस्त किसी व्यक्ति के सपर्क में आने से दूसरे व्यक्तियों में फैल रहा है।

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Monday 11 February 2013

ब्‍लैडर कैंसर क्‍या है

ब्लैडर में असामान्य कोशिकाओं की अनियंत्रित वृद्धि के कारण ब्लैडर का कैंसर होता है।

यह वो गुब्बारेनुमा अंग है जो यूरीन का संग्रह करता है और उसे निष्कासित करता है । ब्लैडर की आंतरिक दीवार नये बने यूरीन के सम्पर्क में आती है और इसे मूत्राशय की ऊपरी परत कहते हैं । यह ट्रांजि़शनल सेल्स/कोशिकाओं द्वारा घिरा होता है जिसे कि यूरोथीलियम कहते हैं । कोशिकाओं की परत के नीचे मांस पेशियों की एक परत होती है जो कि ब्लैडर के सिकुड़ने के साथ यूरीन को निष्कासित करती है जिससे यूरीन यूरेथ्रा नामक ट्यूब से निष्कासित किया जाता है । (एक तरफ ब्लैडर किडनी से यूरेटर नामक ट्यूब से यूरीन प्राप्त करता है)।


मांस पेशियों के ब्लैडर की बाहरी दीवार की परत को सेरोसा कहते हैं जो कि फैटी टिश्‍यू, एडिपोज़ टिश्यूज़ या लिम्फ नोड्स के बहुत पास होता है । ब्लैडर कैंसर ब्लैडर की परत से शुरू होता है । 70 से 80 प्रतिशत ब्लैडर कैंसर के मरीज़ों में कैंसर का पता तभी लग जाता है कि जबकि यह बाहरी सीमित होती है, बाहरी सतह में होती है और ब्लैडर की दीवार की आंतरिक सतह में होती है । कैंसर जब ब्लैडर की बाह्य दीवार में शुरू होता है तो इसे सुपरफीशियल कैंसर कहते हैं और यह असामान्य कोशिकाओं में पृथक धब्बे / आइसोलेटेड पैच की तरह दिखता है । अगर ब्लैडर की आंतरिक दीवार पर उंगलीनुमा निकला हुआ हिस्सा पाया गया तो इसे पैपिलरी ट्रांजिंशनल सेल कैंसर कहते हैं ।

कभी–कभी ट्यूमर का पता तब लगता है जबकि यह गहरे तौर पर ब्लैंडर की आंतरिक दीवार से लेकर लिम्फ नोड्स और दूसरे अंग में फैल चुका होता है ।

ब्‍लैडर कैंसर का एक और प्रकार है जिसे कि कारसिनोमा इन सीटू कहते हैं, जिसका अर्थ है कि यह कैंसर सिर्फ उसी स्थान पर रहता है जहां पर इसकी शुरूआत हुई होती है । हालांकि यह कैंसर ब्लैडर को बहुत गहराई से नहीं प्रभावित करता है लेकिन इसके कुछ लक्षण हैं जैसे यूरीनेशन के दौरान जलन होना । ऐसा भी हो सकता है कि चिकित्सक द्वारा साइटोस्कप से जांच करने के बाद भी यूरोलोजिस्ट इस बीमारी को ना पकड़ पाये । जांच के लिए ब्लैडर की बाह्य दीवार का जो हिस्सा लाल लगे वहां की बायोप्सी करनी होती है ।

इसका पता एक दूसरी जांच से भी लगाया जाता है जिसे कि यूरीन साइटालाजी कहते हैं और इसमें यूरीन की कोशिकाओं की जांच की जाती है । इस जांच में यूरीन का एक नमूना लिया जाता है और माइक्रोस्कोप के अंदर उसकी जांच कर कैंसर की कोशिकाओं का पता लगाया जाता है ।

ब्लैडर कैंसर के तीन प्रकार हैं और सभी में अलग– अलग तरह की कोशिकाएं होती हैं : लगभग 90 प्रतिशत ब्लैरडर के कैंसर ट्रांजि़शनल सेल कार्सिनोमाज़ कहलाते हैं, 6 से 8 प्रतिशत स्क्‍वामस सेल कार्सिनोमा और 2 प्रतिशत एडेनोकार्सिनोमाज़ होते हैं ।


अब तक ब्लैडर कैंसर के कारणों को सिर्फ आंशिक तौर पर ही समझा गया है । ऐसा अनुमान लगाया गया है कि ज्यादातर ट्रांजि़शनल सेल कार्सिनोमाज़ कार्सिनोजन (कैंसर के कारक पदार्थे) के कारण होते हैं जैसे तम्बाकू और वातावरण में मौजूद दूसरे रासायन । धूम्रपान करने वालों में ब्लैडर के कैंसर के होने की सम्भावना सामान्य व्यक्ति से दो से चार गुना अधिक होती है । हालांकि ऐसा भी पाया गया है कि ब्लैडर कैंसर के मरीज़ों में से सिर्फ आधे ही धूम्रपान करने वाले पाये गये हैं । ब्लै‍डर कैंसर औद्योगिक रासायनों के सम्पर्क में आने से भी हो सकता है । यह औद्योगिक कार्सिनोजन हैं एनिलीन डाई, पालीसाइकलिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन जैसे (2-नैपथिलामीन ,4- एमाइनोबाइफिनाइल या बेन्जि़डीन) पालीक्लोरीनेटेड बाइफेनाइल या वो रासायन जिनका प्रयोग एल्युमिनियम, रबर, रासायन और चमड़ा उद्योग के निर्माण में होता है और यहां तक कि यह रासायन ड्राइक्लीनर्स द्वारा, चिमनी से निकलनेवाले रासायन, हेयर ड्रेसर द्वारा, पेन्टर द्वारा, कपड़े का काम करने के दौरान और ट्रक चलानेवालों द्वारा भी वातावरण में मुक्त, किया जाता है ।

विकासशील देशों में, एक परजीवी संक्रमण जिसे कि सीज़ोसोमियासिस कहते हैं वो ब्लैडर कैंसर का खतरा बढ़ाता है । वो मरीज़ जिनमें लम्बे  समय से ब्लैडर की पथरी है उनमें ब्लैडर की दीवार पर सूजन और लम्बे समय तक जलन के कारण  कैंसर का खतरा बढ़ जाता है । वो मरीज़ जिनमें पहले कभी ब्लैडर कैंसर हो चुका है उनमें इस बीमारी के दोबारा होने की आशंका होती है । कैंसर की चिकित्सा के बाद आसपास की जगह में या ब्लैडर में या यूरेटर में (वह ट्यूब जो यूरीन को किडनी से ब्लैडर तक ले आता है)...

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Friday 8 February 2013

हेल्दी रहना है तो दांतों की भी फिक्र करें

आज हम सभी अपने स्वा स्य्ों  को लेकर जागरूक हैं। सर्दी, जु़काम हो या सरदर्द हमें पता है कि इस स्थिसति में क्याक करना है। लेकिन मुंह स्वांस्य्ैं  को लेकर आज भी लोगों में जागरूकता की कमी है।  

डॅाक्टसर अपर्णा शर्मा का कहना है कि दांतों और मसूड़ों की समस्याजओं से बचने के लिए ब्रशिंग और फ्लॅासिंग के साथ चिकित्साक से मिलना ज़रूरी है। दिन में एक बार फ्लासिंग करें और सोने से पहले ब्रश ज़रूर करें।  

दांतों की सामान्य् समस्या एं:
•    दांतों में छेद : अधिक मीठा खाने पर या कई अन्यै कारणों से हमारे मुंह में मौजूद बैक्टीरिया एसिड पैदा करने लगते हैं, जिससे दांतों में छेद (कैविटीज़) हो जाती हैं। 
•    प्लॅााक और टारटर: प्लॅािक हर एक के दांतों में होता है। दांतों की सफाई करने के तुरंत बाद, प्लॅा क  का बनना शुरू हो जाता है। अगर इसे रोजाना अच्छी तरह से साफ  नहीं किया गया तो इसे कठोर टारटर में तब्दील होने में ज्यादा देर नहीं लगेगी।
•    जिंजिवाइटिस:यह मसूड़ों की बीमारी है, जिसमें मसूडें सूज जाते हैं या इनसे खून रिस सकता  है।
•    पेरिओडोन्टाल  रोग: यह मसूड़ों का गंभीर रोग है, जो दांतों से जुड़ी हड्डी तथा उसके आस-पास के उत्तको को भी नष्ट कर देता है।  

क्याप आप जानते हैं:
•    इनेमल शरीर का सबसे कठोर भाग होता है।  
•    हमारी जीभ जहां व्यंकजनों का स्वा्द लेने में हमारी मदद करती है वहीं यह चिकित्सगकों को हमारी बीमारी का भी पता देती है। 
•    हमारा मुंह किसी भी बीमारी को सबसे पहले दर्शाता है। 
•    मुंह के अंदर की रेखा को ‘ओरल म्यूरकोसा’ कहते हैं और इसका लाल या गुलाबी रंग का होना स्व स्थ  शरीर का संकेत देता है।

दांतों का स्वादस्य्ो   हमारे संपूर्ण स्वा’स्य्ैं  को प्रभावित कर सकता है और गंभीर बीमारियों को भी जन्मक दे सकता है, तो आज से ही सजग हो जायें।

Shakuntla Nursing Home & Hospital Are Pleased To Introduce Ourselves As One of The Ultra modern Nursing Home & Hospital Offering The Widest Range of Medical facilities. We provide Hospital in west delhi, Ecg service hospital, Women's health, Child health nursing home, Medical treatment, Stone removal, Urological solution & Specialist doctors.

Thursday 7 February 2013

फ्लू से बचाव


इन्फ्लूएंजा के हमले से बचाव के लिए विकल्पों में हाल के वर्षों में तेजी से वृद्धि हुई है।

टीका

प्रत्येक वर्ष स्कूली आयु वर्ग के बच्चों सहित उन सभी लोगों को टीकाकरण की सलाह दी जाती है जो इन्फ्लूएंजा से बीमार होने या दूसरों को इन्फ्लूएंजा संचारण के जोखिम को कम करना चाहते हैं।

टीकाकरण की सलाह विशेष रूप जिन्हें दी जाती है वे हैं:

  • उम्र के 6 महीने से 18 साल की आयु वर्ग के सभी बच्चे और किशोर, खासकर वे जो दीर्घकालिक एस्पिरिन चिकित्सा करवा रहे हैं और इसलिए जिन्हें इन्फ्लूएंजा संक्रमण के बाद "रिये" सिंड्रोम से ग्रस्त होने का जोखिम हो सकता है 
  • वे सभी लोग जो 50 वर्ष की आयु अधिक के हैं; 
  • महिलायें जो गर्भवती हैं या इन्फ्लूएंजा के मौसम के दौरान गर्भवती होंगी;
  • वयस्क और बच्चे जिन्हें दीर्घकालिक फेफड़े के (अस्थमा सहित), हृदय (उच्च रक्तचाप को छोड़कर), गुर्दे, यकृत, रक्त या,  चयापचयी (मेटाबोलिक) विकार हैं (डायबिटीज मेलिटस सहित);
  • वयस्क और बच्चे जिनकी प्रतिरक्षा प्रणाली कमज़ोर है (इम्युनोसप्रैसिव दवाओं या ह्यूमन इम्यूनोडेफिशिएन्सी वायरस की वजह से);
  • वयस्क और बच्चे जो किसी भी ऐसी हालत में (जैसे, संज्ञानात्मक दुष्क्रिया, स्पाइनल कॉर्ड की चोटें, जब्ती विकार, और अन्य न्युरोमस्कुलर विकार) हैं जिससे फेफड़ों की कार्यक्षमता या श्वसन स्रावों के संचालन की प्रक्रिया आहत हो सकती है या जीवन के लिए खतरा बढ़ सकता है;
  • नर्सिंग होम और अन्य पुरानी देखभाल सुविधाओं के निवासी;
  • स्वास्थ्य सेवा कर्मचारी;
  • वयस्कों या बच्चे जो कम से कम 5 वर्षों (विशेष रूप से 6 माह से कम आयु वर्ग के बच्चे) के आयु वर्ग के बच्चों और 50 वर्ष से अधिक आयु के वयस्कों के साथ निकट संपर्क में हैं;
  • वयस्क या बच्चे जो उन लोगों के साथ निकट संपर्क में हैं जो चिकित्सा की उस स्थिति में हैं जो उन्हें इन्फ्लूएंजा की गंभीर जटिलताओं के उच्च जोखिम में डालती हैं;
  • फ्लू के मानक टीके 65 वर्ष की कम आयु के स्वस्थ लोगों में, बीमारी से बचाव या इसकी गंभीरता को कम करने में 70% से 90% तक प्रभावी है। अधिकतम प्रभावशीलता के लिए, डॉक्टर लोगों को अक्टूबर या नवंबर, जो कि फ्लू के मौसम का प्रारंभ होता है, में टीकाकरण की सलाह देते हैं।


2 और 49 के बीच के आयुवर्ग के स्वस्थ लोगों के लिए फ्लू शॉट के लिए एक अन्य विकल्प है। फ्लूमिस्ट एक अन्त्र्नासिकीय  टीके का स्प्रे है जो कि समान संरक्षण प्रदान करता है। इसमें, शॉट में मारे गए वायरस के बजाय एक जीवित निष्क्रिय वायरस का उपयोग होता है। फ्लूमिस्ट किसी भी तरह मानक फ्लू शॉट से अधिक प्रभावी नहीं है। क्योंकि फ्लूमिस्ट इतना नया है इसलिए फ्लू के उच्चतम जोखिम वाले लोगों (49 वर्ष से अधिक आयु के लोग और क्रोनिक स्वास्थ्य स्थितियों वाले लोग) को वैक्सीन इंजेक्शन के रूप में लेनी चाहिए।

स्वच्छता

वायरस आमतौर पर खांसी द्वारा हवा के माध्यम से पारित होता है। यह सीधे संपर्क जैसे हाथ मिलाने या चुंबन से भी पारित होता है। इसी कारण से स्वच्छता आदतों जैसे खांसते हुए मुंह को ढकना और नियमित हाथ धोना, के अभ्यास से आप फ्लू को स्वयं से दूर रखने और दूसरों में फैलाने से बच सकते हैं।

एंटीवायरल दवाएं

ज़नेमिविर (रिलेंज़ा) और ओजेल्टामिविर (टेमिफ्लू) को अगर संभावित संक्रमण से पहले ले लिया जाये तो फ्लू होने की संभावना को 70% से 90% तक कम किया जा सकता है। ज़नेमिविर एक स्प्रे है जिसे मुंह के माध्यम से साँस में छोड़ा जाता है। बाकी सब गोलियाँ हैं।

ऐमनटाडीन और रीमेंटाडीन जैसी पुरानी दवायें जो पहले इन्फ्लूएंजा रोकने के लिए इस्तेमाल जाती थीं, अब अपनी प्रभावशीलता को खो चुकी हैं लेकिन ज़नेमिविर और ओजेल्टामिविर, इन्फ्लूएंजा ए और बी के अधिकांश उपभेदों के विरुद्ध अब भी उपयोगी हैं

ज़नेमिविर नेबुलाइजर से साँस द्वारा दिया जाता है। इसे 5 और उसे अधिक उम्र में रोकथाम के लिए और 7 और उससे अधिक उम्र में इलाज के लिए स्वीकृति प्राप्त है। इसके दुष्प्रभावों में मिचली आना, उल्टी और घरघराहट जो कि विशेष रूप से अस्थमा या क्रोनिक फेफड़ों की बीमारी में होता है, शामिल है।

ओजेल्टामिविर गोली के रूप में उपलब्ध है। इसे एक साल से अधिक आयु के रोगियों में रोकथाम और उपचार के लिए स्वीकृत किया गया है। दुष्प्रभावों में मिचली और उल्टी आना शामिल हो सकता है।

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Wednesday 6 February 2013

फाइलेरिया से बचाव


फाइलेरिया नियंत्रण के लिए उपाय निम्नानुसार हैं; 

  • जो लोग  फाइलेरिया रोग से संक्रमित है उनकी पहचान की जाये और उनके रक्त का उचित उपचार किया जाये ताकि उनसे यह रोग दूसरों को न फैले और।
  • मच्छर रोधी उपाय अपनाये जाएँ ।


राष्ट्रीय फाइलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम; 

  • इस कार्यक्रम के अंतर्गत  सूक्ष्म कीड़े को मारने की दवाई दी जाती है जिससे कीड़ों के  पूरे समुदाय का खात्मा हो जाये।
  • इस कार्यक्रम के अंतर्गत ऐसे मच्छर विरोधी उपायों का उपयोग किया जाता है जिससे कि ग्रामीण क्षेत्रों और शहरी इलाकों में जो एंटीलार्वल  दवाओं का  साप्ताहिक अंतराल पर छिडकाव किया जा सके।  इन् उपायों में ऐसे कीटनाशक दवाओं का उपयोग शामिल किया गया है जिससे कि  मच्छरों के लार्वा, जैसे टेम्पेफोस , फ़ेन्थिओन इत्यादि को मारा जा सके। ऐसे गड्ढों को भी भरने का इंतजाम है जिससे कि  मच्छर के प्रजनन पर  नियंत्रण पाया जा सके। 
फाइलेरिया को रोकने का एक अन्य प्रमुख उपाय यह है कि  आप मच्छर के काटे जाने से बचें।  क्यूलेक्स मच्छर जिसके कारण फाइलेरिया का संक्रमण फैलता है आम तौर पर शाम और सुबह के वक्त काटता है।  यदि आप किसी ऐसे क्षेत्र में रहते हैं जहां फाइलेरिया फैला हुआ हो तो खुद को मच्छर के काटने से बचाएँ।  मच्छर के काटने से बचने के उपायों में निम्न उपाय शामिल हैं:


  • सुरक्षात्मक कपडे पहने; मसलन आपके पैंट एवं शर्ट ऐसे हो जिनसे आपका पूरा पाँव और बांह ढक जाए।
  • आवश्यकता पड़े तो  पेर्मेथ्रिन युक्त (पेर्मेथ्रिन एक आम सिंथेटिक रासायनिक कीटनाशक होता है) कपड़ों का उपयोग करें।  बाजार में पेर्मेथ्रिन युक्त कपडे मिलते हैं।
  • अगर जरूरत पड़े तो कीट विकर्षक का प्रयोग करें।   डी ई ई टी  नामक कीट विकर्षक तरल पदार्थ, लोशन और स्प्रेज़ के रूप में उपलब्ध रहता है । आपकी  त्वचा का जो खुला हुआ भाग रहता हो उसपर डी ई ई टी  नामक कीट विकर्षक लगायें।  आपको कितनी देर के लिए मच्छरों  से सुरक्षा चाहिए इस बात पर निर्भर करता है  कि आप कीट विकर्षक  डी ई ई टी  कितना गाढ़ा लेते हैं।  ज्यादा गाढ़ा डी ई ई टी   लगायेंगे तो आपको ज्यादा देर तक संरक्षण मिलेगी।
  • अगर आपके घर की खिडकियों में मच्छर रोकने की जाली नहीं लगी हुई हो तो उन्हें बंद रखें ताकि मच्छर अंदर प्रवेश नहीं कर सकें।
  • मच्छरों को मारने के लिए कीट स्प्रे से छिडकाव करें।

फाइलेरिया के कारण


भारत के अधिकांश भागों में फाइलेरिया एक ऐसे परजीवी के कारण होता है जिसे वुचेरेरिया   वानक्रोफ़टी के रूप में जाना जाता है।   इस तरह का संक्रमण भारत के  शहरी और ग्रामीण, दोनों क्षेत्रों में आम बात है। एक व्यक्ति से दूसरे तक यह रोग स्थानांतरित करने में क्यूलेक्स नामक मच्छर  रोगवाहक का काम करता है।  जो वयस्क परजीवी होता है वह छोटे और  अपरिपक्व माइक्रोफिलारे  को जन्म देता है और एक वयस्क परजीवी अपने 4-5 साल के जीवन काल में लाखों माइक्रोफिलारे   लार्वा पैदा करता है। माइक्रोफिलारे  आमतौर पर व्यक्ति के रक्त परिधीय  में रात में प्रसारित होता है।  यह बीमारी एक संक्रमित मच्छर क्यूलेक्स के काटने से फैलता है।  जब कोई क्यूलेक्स मच्छर एक संक्रमित व्यक्ति को काटता है तो उस व्यक्ति से माइक्रोफिलारे  उस मच्छर के शरीर में प्रवेश कर जाता है।  मच्छर के शरीर में  माइक्रोफिलारे  7-21 दिनों में विकसित होता है।  इसके बाद जब संक्रमित मच्छर किसी स्वस्थ व्यक्ति को काटता है तो उस व्यक्ति को भी यह रोग लग जाता है। 
एक अन्य परजीवी, जिसके  कारण फाइलेरिया होता है उसे  ब्रूगिया मलाई  कहा जाता है।  यह मानसोनिया  (मानसोनियोडिस) एनूलीफेरा  द्वारा फैलता है।  ब्रूगिया मलाई  का संक्रमण मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में पाया जाता है।  डब्ल्यू वानक्रोफ़टी और बी मलाई   दोनों के माइक्रोफिलारे  के संक्रमण की प्रदर्शनी रात की अवधि में हीं अधिकांशतः होती है।

संक्रमित मच्छर के काटने के बाद फाइलेरिया को विकसित होने में आमतौर पर कई महीने या वर्ष लग जाते हैं। जिन  क्षेत्रों में  फाइलेरिया आम बात होती  है उन क्षेत्रों में ज्यादा  समय तक रहने से आपके संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है।  लेकिन जो पर्यटक अल्पकाल के लिए किस ऐसे क्षेत्र  का भ्रमण करते हैं जहाँ फाइलेरिया फैला हुआ होता है तो उतने कम समय में उन्हें इस रोग से ग्रसित होने का खतरा बहुत कम होता है।

फाइलेरिया के लक्षण


ज्यादातर लोगों को शुरू में पता हीं नहीं चल पाता है कि  वे लिंफ़ फाइलेरिया के शिकार हो गए हैं। फाइलेरिया कोई जानलेवा बीमारी तो नहीं है लेकिन इसके संक्रमण से लसीका प्रणाली और गुर्दों के स्थायी रूप से क्षतिग्रस्त होने का जोखिम रहता है।  प्रारंभिक चरणों में इस रोग के किसी लक्षण का पता हीं नहीं चलता और समस्याओं की शुरुआत तब  से होती है जब  वयस्क कीड़े मर जाते हैं।  जब इस रोग के शिकार व्यक्ति कि   लसीका प्रणाली क्षतिग्रस्त हो जाती है तब उस व्यक्ति की बाहों, स्तनों, और पैरों में द्रव संगृहीत होने लगता है जिसकी वजह से उन अंगों में सूजन आ जाती है। इस प्रकार की सूजन को  लिम्फेदेमा  कहा जाता है।  पुरुषों में वृषणकोश में सूजन हो सकती है।  इस प्रकार के सूजन को हाईड्रोशील कहा जाता है।  पैर, हाथ, या जननांग के क्षेत्र में सूजन पुरुषों के अपने सामान्य आकार से कई गुणा ज्यादा हो सकता है।

अंगों में सूजन होने से तथा लसीका प्रणाली के क्षतिग्रस्त होने से त्वचा और लसीका प्रणाली में जीवाणु के संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है।  बार बार  संक्रमण के हमले से रोगी की त्वचा  सख्त और मोटी हो जाती है जिसे  फ़ीलपाँव के रूप में जाना है।  फाइलेरिया के दुर्लभ अभिव्यक्तियों में उष्णकटिबंधीय फुफ्फुसीय एसनोफिला और चाईलुरिया  शामिल हैं। आमतौर पर फाइलेरिया के निदान के लिए जिस विधि का इस्तेमाल किया  जाता है उसमें परजीवी  का प्रत्यक्ष प्रदर्शन (लगभग हमेशा माइक्रोफिलारे  के रूप में) रक्त या त्वचा के नमूनों के ऊपर निर्धारित करना शामिल है।  चूँकि  माइक्रोफिलारे  में आवधिकता होती है इसलिए उसके रोगी के खून  का नमूना आमतौर पर रात में लिया जाता है।  फाइलेरिया के निदान  के अन्य जो परिक्षण  हैं उनमें इम्म्युनोडायग्नोस्टिक  एंटीबॉडी  परीक्षण तथा फाइलेरिया प्रतिजन (सी ऍफ़ ए) परिसंचारी की प्रक्रिया शामिल है। 

भारतीय बोझ

फाइलेरिया भारत के कई भागों में प्रचलित है और एक प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या के रूप में माना जाता है।  राष्ट्रीय फाइलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम (एन ऍफ़ सी पी) 1955 में इस रोग पर नियंत्रण पाने के उद्देश्य के साथ शुरू किया गया था।
जो  राज्य फाइलेरिया से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं वे बिहार, केरल, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु हैं। फाइलेरिया के सबसे ज्यादा मामले भारत के बिहार राज्य में पाए जाते हैं (पूरे मामलों का 17% भाग बिहार में होते हैं)।  आंध्र प्रदेश, बिहार, केरल, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में भी यह रोग काफी हद तक फैला हुआ है और ये राज्य माइक्रोफिलारे  के वाहक का काम करते हैं तथा भारत में इस रोग के 97%  मामलों का कारण बनते हैं।
भारत में फाइलेरिया का संक्रमण फ़ैलाने का सबसे बड़ा कारण  डब्ल्यू वानक्रोफ़टी माना जाता है। देश में इस बीमारी का लगभग 98% भाग इसी की वजह से होता है जो राष्ट्रीय बोझ की तरह है ।  यह रोग महिलाओं की तुलना में  पुरुषों में अधिक पाया जाता है।
गोवा, लक्षद्वीप, मध्य प्रदेश और असम जैसे राज्य फाइलेरिया से बहुत कम प्रभावित हैं।
550  लाख से भी अधिक लोगों को फाइलेरिया होने का जोखिम है तथा 21 लाख लोगों में फाइलेरिया होने के लक्षण हैं और लगभग 27 लाख लोग फाइलेरिया के संक्रमण में वाहक का काम कर रहे हैं।

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Tuesday 5 February 2013

घर बैठे करें वज़न घटाने वाले व्यायाम


आप काफी समय से वजन कम करने में प्रयासरत हैं लेकिन फिर भी आप वजन कम नहीं कर पा रहे, क्योंकि आप यह नहीं जानते कि आखिर वजन कम करने का सही तरीका क्या है।


हालांकि ये तो सभी जानते हैं कि वजन घटाने के लिए संतुलित खान-पान के साथ ही वजन घटाने वाले व्यायाम करना भी जरूरी होता है। लेकिन मुश्किल वहां आती है जब आपको ये नहीं पता होता, आखिर वे कौन से व्यायाम है जिनको आप अपनी दिनचर्या में शामिल कर ना सिर्फ अपना वजन कम कर सकते हैं बल्कि अपना वजन भी आसानी से घटा सकते हैं। तो अब चिंता की बात नहीं, आइए हम आपको बताते हैं, अब आप घर बैठे करें वजन घटाने वाले व्यायाम।


  • रोजाना कम से कम आपको 30 मिनट व्यायाम करना होगा। इससे आप आसानी से वजन भी कम करेंगे और दिनभर चुस्त-दुरूस्त भी रहेंगे।
  • कोई भी व्यायाम करने से पहले उसके दिशा-निर्देशों पर भी ध्यान देना जरूरी है। जैसे आप व्यायाम खुले आसमां के नीचे करे और व्यायाम करने से पहले आप खाली पेट हो, साथ ही आपके पास भरपूर समय हो, अन्यथा तनाव में व्यायाम करने से आपको लाभ पहुंचने के बजाय नुकसान भी हो सकता है।
  • हालांकि आप यदि खुले में व्यायाम नहीं करना चाहते तो आप इनडोर वर्कआउट जैसे वॉटर ऐरोबिक्स, स्वीमिंग और योगा इत्यादि भी कर सकते हैं, या फिर आउटडोर वर्कआउट वॉलीबॉल, बैडमिंटन और वॉक इत्यादि भी कर सकते हैं, इससे आपको वजन कम करने में मदद मिलेगी।
  • व्यायाम के माध्यम से वजन कम करने के लिए बाडी की स्ट्रेचिंग खाकर ज्वचाइंट्स की स्ट्रेचिंग करना बहुत फायदेमंद रहता है।
  • हल्के-फुल्के वजज को उठाकर व्यायाम करें, इससे आपकी बाडी फिट और बैलेंस्ड होगी।
  • व्यायाम के दौरान प्रतिदिन जोर-जोर से सांस अंदर-बाहर खींचना चाहिए, इससे पेट पर बल पड़ते हैं और अतिरिक्त चर्बी कम होने लगती है।

  • आप प्रतिदिन डांस को भी अपनी दिनचर्या में शामिल कर सकते हैं। इससे आप निश्चित रूप से फिट रहेंगे।
  • रतिदिन खाना खाने के बाद सुबह-शाम जरूर टहलें, इससे आपका खाना जल्दी पचेगा और एक्सट्रा कैलारी भी बर्न होगी।
  • सूक्ष्म व्यायाम करके भी वजन को कम कर सकते हैं। सूक्ष्म व्या्याम में श्वास प्रश्वांस की क्रियाएं, वक्षस्थल तथा उदर की सभी क्रियाएं कर सकते हैं।
  • प्रणायाम करना वजन कम करने में बहुत ही लाभकारी है। सुबह प्रतिदिन 10 मिनट भी आप प्रणायाम करते हैं तो आप कुछ ही समय में अपने शरीर की अतिरिक्त चर्बी को कम होता हुआ देखेंगे।
  • व्यायाम करने के दौरान ध्यान रहे कि आप अपनी क्षमता के अनुसार ही व्यायाम करें और धीरे-धीरे इसका समय बढ़ा दें। अचानक वर्कआउट खत्म ना करें बल्कि उससे पहले  डीप ब्रीदिंग , मेडिटेशन और स्ट्रेचिंग इत्यादि जरूर कर लें।
  • तनावमुक्त रहकर और अच्छी नींद से भी वजन कम किया जा सकता है। इससे न सिर्फ मन प्रसन्न रहता है बल्कि शरीर में फुर्ती आती है।
  • यदि आप लंबे समय तक फिट रहना चाहते हैं तो आपको अपने खाने को संतुलित करने के साथ ही व्यायाम को भी अपनी दिनचर्या में शामिल करना होगा।

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Monday 4 February 2013

घर बैठे ब्लड प्रेशर का इलाज

भागमभाग और तनाव भरी जिंदगी में लोगों में ब्लड प्रेशर (रक्तचाप) की समस्या पेश आ रही है। जितना घातक हाई ब्लड प्रेशर होता है उतना ही नुकसानदेह लो ब्लड प्रेशर। लो ब्लड प्रेशर की स्थिति वह होती है कि जिसमें रक्तवाहिनियों में खून का दबाव काफी कम हो जाता है। सामान्य रूप से 90/60 एमएम एचजी को लो ब्लड प्रेशर की स्थिति माना जाता है।

क्या हैं लक्षण


  • सुस्ती
  • कमजोरी
  • थकान
  • लो ब्लड प्रेशर के कारण
  • पोषक तत्व रहित भोजन
  • कुपोषण
  • खून की कमी
  • पेट व आंतों, किडनी और ब्लैडर में खून का कम पहुंचना
  • निराशा का भाव लगातार बने रहना


कैसे करें इलाज


  • पिएं चुकंदर का जूस


लो ब्लड प्रेशर को सामान्य रखने में चुकंदर का जूस काफी कारगर होता है। जिन्हें लो ब्लड प्रेशर की समस्या है उन्हें रोजाना दो बार चुकंदर का जूस पीना चाहिए। हफ्ते भर में आप अपने ब्लड प्रेशर में सुधार पाएंगे।

जटामानसी

जटामानसी नामक एक आयुर्वेदिक औषधि भी लो ब्लड प्रेशर का निदान करने में मददगार है। जटामानसी का कपूर और दालचीनी के साथ मिश्रण बनाकर सेवन कर सकते हैं। इसके अलावा जटामानसी के अर्क (पानी के साथ उबालकर) को पीने से भी लो ब्लड प्रेशर की समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है।

एप्सम नमक से नहाएं

एप्सम नमक (मैग्नीशियम सल्फेट) से स्नान लो ब्लड प्रेशर को ठीक करने का सबसे सरलतम इलाज है। इसके लिए पानी में करीब आधा किलो एप्सम नमक मिलाएं और करीब आधा घंटा पानी में बैठें। बेहतर होगा कि सोने के पहले यह स्नान करें।

भोजन में बढ़ाएं पोषक तत्वों की मात्रा

प्रोटीन, विटामिन बी और सी लो ब्लड प्रेशर को ठीक रखने में मददगार साबित होते हैं। ये पोषक तत्व एड्रीनल ग्रंथि से निकलने वाले हार्मोनों के स्राव में वृद्धि कर लो ब्लड प्रेशर को तेजी से सामान्य करते हैं।

यह भी कारगर है लो ब्लड प्रेशर के निदान में

फल और दूध का सेवन

लो ब्लड प्रेशर को दूर करने के लिए ताजे फलों का सेवन करें। दिन में करीब तीन से चार बार जूस का सेवन करना फायदेमंद रहेगा। जितना संभव हो सके, लो ब्लड प्रेशर के मरीज दूध का सेवन करें।

पैदल चलें और साइकिल चलाएं

लो ब्लड प्रेशर के मरीजों के लिए पैदल चलना, साइकिल चलाना और तैरना जैसी कसरतें फायदेमंद साबित होती हैं। इन सबके अलावा सबसे जरूरी यह है कि व्यक्ति तनाव और काम की अधिकता से बचें।

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